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ते शिवोषन्ति नूनं निजपुरमुधि बाहयुग्मेन तोर्वा । कल्पांतोद्भूतवाता भितजल घरासार कोर्णान्तरालम् ||६||
मोक्ष का उपाय रत्नत्रय की एकता है । मार्ग को जान लेने मात्र से ही कार्य को सिद्धि नहीं हो सकती है। जो ऐसा मानते हैं कि हमने आत्मा को पहचान लिया है अब हमें कुछ भी चारित्र पालने की आवश्यकता नहीं हम चाहे पाप करें या पुण्य करेंहमें बन्ध नहीं होगा वे ऐसे मूढ़ हो हैं जैसे वे लोग मूर्ख हैं जो अपनी भजा से समुद्र पार कर-करा, चले जायेंगे जो कल्पकाल की घोर पवन से डांवाडोल है जिसमें अनेक मगरमच्छ भयानक जंतु हैं।
सम्यग्दर्शन सम्यक ज्ञान सम्यक्चारित्र तीनों की एकता की जरूरत है। जैसे व्यापार करना है तो पहले रोतियों को समझते हैं, विश्वास लाते हैं फिर जब उस विश्वास सहित ज्ञान के अनुसार उद्योग गाना है तबीयापार करने का फल पा सकता है।
ममितमति हमाराज ने सुभाषित रत्नसंदोह में कहा हैसदर्शनज्ञान तपोदमाढ्यश्चारित्र भाज: सफला: समस्ताः । व्यपश्चिरित्रेण बिना भवन्ति ज्ञात्त्वेह सन्तश्चरिते यतन्ते ।।२४२
सम्यकदर्शन सम्यग्ज्ञान तथा तप व इन्द्रिय दमन सहित जो जीव चारित्र को पालन करने वाले हैं वे सर्व ही सफलता कोपा लेते हैं क्योंकि चारित्र के बिना उन सबका होना व्यर्थ है। तीनों को एकता से जो भाव पंदा होता है उसे स्वानुभव कहते हैं।
जहां श्रद्धान ज्ञान सहित आत्मस्वरूप में रमणता होती है वहीं स्वानुभव या आत्मध्यान पैदा होता है। यही ध्यान मोक्ष का मार्ग है, कमों को निर्जरा करके मात्मा को शद करता है। इसलिए मात्र जानने से ही कार्य बनेगा इस बुद्धि को दूर कर श्रवान व शाल सहित चारित्र को पालना चाहिए। मन को