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सस्वभावना
महिमा बताई है। इस जगत में यह संसारी प्राणी जीव पुद्गलका मिला हुआ एक आकार रखता है। अनादि काल से ही इसके कर्मों का बंध होता ही रहता है। कौके उदय से राम-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ मादि अशुद्ध भाव होते हैं तथा कर्मों के ही उदय से शरीर होता है व शरीर के साथी स्त्री पुत्रादि नौकर चाकर होते हैं। कर्मों के बड़े विकट फैले हुए जालके भीतर इतना सघन आत्मा का स्वरूप फंस जाता है कि तत्वज्ञान रहित प्राणियोंको आत्मा का ज्ञान व श्रद्धान नहीं होता। हरएक तत्वज्ञान रहित मानव या जीव पर्यायबुद्धि बना रहता है । जिस शरीर में होता है उसी रूप अपने को मान लेता है। कभी भी अपने असली आत्मस्वरूप को नहीं पाता है। इसीलिए इन्द्रियों के सुखोंमें मग्न होकर रात-दिन इन्द्रियसुख की चेष्टा किया करता है तथा तीन रागद्वेष मोह में पड़कर तीन पापकर्म बांधकर पशु आदि गतियों में भ्रमण किया करता है। वास्तव में कर्मबंध का मूल कारण मिथ्यात्व है । संसार की जड़ ही मिथ्यात्व है । जिसने अनंतानुबन्धो चार कषाय तथा मिथ्यात्व को वश कर लिया है उसने संसार वृक्ष को जड़ काट डाली है । उसने जो कुछ कषायों के शेष रहने से कर्म का बंध होता भी है वह संसार के भ्रमण को अनंत+ कालीन नहीं कर सकता है। वह बन्धन अवश्य शोन कट भी जायगा। इसका कारण यह है कि उसकी बुद्धि संसार में लिप्त नहीं होती है। क्योंकि उसके अंतरंग में यह भेद विज्ञान भले प्रकार जानत है कि मेरे आत्मा का स्वभाव ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमई अमूर्तीक अविनाशी है । कोई भी रागादि भाव आत्मा का स्वभाव नहीं है। ज्ञानावरणादि आठ कर्म व शरीरादि नो कर्म सर्व भिन्न पदार्थ हैं, इस जगत में परमाणु मात्र भी मेरा