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________________ [ १०१ को अपने से भिन्न पर जानता है। जब कोई पर वस्तु अपने आत्मा की नहीं है तब परवस्तु से मोह करना वास्तव में नादानी है। सुभाषित रत्नसंदोह में यही आचार्य कहते हैंन संसारे किचित् स्थिरमिह निजं वास्ति सकले । विमुष्याच्यं रत्नत्रितयमनधं मुक्तिजनकम् । अहो मोहार्तानां तदपि विरतिर्नास्ति भक्तस्वतो माशांपायादिखमनसारं सौख्यकुशलम् ॥ ३४० ॥ भावार्थ -- इस सम्पूर्ण संसार में न कोई वस्तु स्थिर है न अपनी है सिवाय पूज्यनीय निर्मल शक्ति के उत्पन्न करने वाले रत्नत्रय धर्म के । बड़े खेद की बात है कि मोह से दुःखी जीवों की विरक्ति तब भी संसार से नहीं होती है तब फिर जो मोक्ष के उपाय से विरुद्ध मन वाले हैं उनकी सच्चा सुख नहीं मिल 1 सकता । तत्त्वभावना मूलश्लोकानुसार भुजंगप्रयात छन्द यतन बहु कराए सदा पालने को । सुनिज बेह भी साथ नहि चालनेको । धनाविक बहिर्वस्तु किम साथ होवे । सुधी जानकर कौन से मोह बोवे ||३४ स्थानिका- आगे कहते हैं कि ज्ञानी की दृष्ट व अनिष्ट पदार्थों में समताभाव रखना चाहिए । मंदाक्रान्ता वृत्त शिष्टे दुष्टे सर्वास विपिने काँधने लोष्ठवर्गे 1 सौख्ये दुःखे शुनि नरवरे संगने यो वियोगे । शश्वद्धोरो भवति सदृशो द्वेषरागध्यपोढः । प्रौढा स्त्रोव प्रथितमहसस्तस्य सिद्धिः करस्थाः ।। ३५ ।।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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