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________________ १०२ ] अन्वयार्थ - (यः) जो कोई (शिष्टे दुष्टे ) सज्जन में या दुर्जन में ( सदसि विपिने) सभा में या वन में ( काँचने लोष्ठवर्गे) सुवर्ण में या कंकड़-पत्थर में (सौख्ये दुःखे ) सुख में व दुःख में ( शुनि नरबरे) कुत्ते में व श्रेष्ठ मनुष्य में (संगमे वियोगे ) इष्ट के संयोगमें या वियोग में ( सदशः ) समानभाव रखता हुआ ( शश्वत् ) सदाही ( धीर: ) धीर तथा ( द्वेषरागव्यपो ) राग-द्वेष रहित वीतरागी (भवति) रहता है ( तस्य ) उस ( प्रथित महसः ) प्रसिद्ध तेजस्वी के पास ( सिद्धि:) मुक्ति (प्रौढ़ा स्त्री इव) युक्ती स्त्री के समान ( करस्था) हाथ में ही आ जाती है तत्त्वभावना I भावार्थ - यहाँ आचार्य कहते हैं कि जैसे वीरधीर तेजस्वी पुरुष को युवती स्नो शीघ्र कर लेती है उसके निकट भाजाती उसी प्रकार मुक्तिरूपी स्त्री उस महान तेजस्वी पुरुष को शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है जो समताभाव के अभ्यास करने वाले हैं, जिन्होंने ऐसा वैराग्य अपने भीतर बढ़ा लिया है कि यदि कोई सज्जन मिलें तो उनसे राग नहीं करते दुजन कष्ट देवें तो उनसे द्वेष नहीं करते । यदि कभी मानवों की सभा में जाने का काम पड़ गया तो उससे प्रसन्न नहीं होते और यदि जंगल में अकेले रहना हुआ तो कुछ खेद नहीं मानते हैं। जिनके आगे कोई रत्न सुवर्णों के ढेर कर दे तो उससे लोभ नहीं करते और यदि कंकड़ पत्थर रख दे तो उससे द्वेष नहीं करते । यदि साताकारी पदार्थों का सम्बन्ध मिले तो हम सुखी हुए ऐसी कल्पना नहीं करते और यदि असाताकारी सम्बन्ध प्राप्त हो तो हम दुःखी हुए ऐसी मान्यता नहीं करते, यदि सामने कुत्ता आकर बैठ जावे तो उससे वृणा नहीं करते और यदि कोई चक्रवर्ती राजा आ जाये तो उससे मोह नहीं करते । उनको यदि सुहावने शिष्यवर्गादि का सम्बन्ध हो तो राग नहीं करते और यदि असुहावने चेतन-अचे
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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