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को उठायेगा और अपने आत्मानुभवरूपी वीर्यको सम्हारेगा तो यह इन शत्रुओं को अवश्य भगा देगा। आचार्य कहते हैं कि मनुष्य जन्म, उत्तम बुद्धि, जिनधर्म का समागम आदि सामग्री बहुत दुर्लभ है इन सबको पाकर यही अवसर है जो इस अनादि काल शत्रुओंका संहार किया जावे यदि इस अवसर को चूका जायगा तो फिर इनके नाशका अवसर मिलना कठिनहो जायगा । बुद्धिमानोंका कर्त्तव्य यही है कि जब मौका आ जाय और शत्रु अपने वश में आजावे तब उसको बिना मारे या बिना अधिकार में किए हुए न जाने दें। नहीं तो शत्रुसे सदा ही कष्ट मिलता रहेगा । इसलिए यही उचित है कि भेदविज्ञान के द्वारा आत्मध्यानका अभ्यास करके विषयकषायोंको जीता जावे ।
तस्वभावना
स्वामी अमितगतिजो सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं-यदि कथमपि नश्येद् भोगलेशेन तत्त्वं । पुनरपि तदवाप्तिर्दुःखतो देहिनां स्यात् ॥ इति हतविषयाशा धर्मकृत्ये यतध्वं । यति भवमृतिमुक्ते मुक्तिसोयेऽस्ति वांछा ॥११॥
भावार्थ -- यदि किसी भी तरह इस मनुष्य जन्म को अल्प भोगोंमें फँसकर नाश कर डाला जायगा तो फिर प्राणियों को बड़े कष्ट से इस मनुष्य जन्मका लाभ होगा इसलिए इस अपूर्व अवसर को पाकर इंद्रियोंके विषयों की आशा को छोड़कर धर्म कार्यों में यतन कर यदि तेरी यह इच्छा है कि तु जन्म मरण से रहित मुक्ति के सुख को पा ले ।