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________________ तत्त्वगःश्णा मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द हिंसाविक तार कष्टकारी भववन महा दुर्गमं । इंद्रिय विषय कषाय दुःख देते तू मूर्ख सहतापरं ॥ अब तो निर्मल आत्मज्ञान लहिके इन सर्वका नाशकर । अवसर पा निज शत्रु मार देते छोड़े नही ज्ञानघर ।। ६५ [ ७८ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जितना परिश्रम यह संसारी प्राणी धनादिके लिए करता है उतना यदि मोक्षके लिए करें तो अनन्त सुख को पावे | मालिनी वृत्तम् असिमसिकृषिविद्या शिल्पवाणिज्योगः । तनुधनसुतहेतोः कर्म यावुक्करोषि ॥ संयमार्थं विधत्से । सकृदपि यदि ता सुखममलमनंतं किं तदा नाश्नुवेऽलम् ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थ - ( असिमसिकृषिविद्या शिल्पवाणिज्ययोर्गः ) शास्त्रकर्म, लेखनकर्म, कृषिकर्म, विद्याकला, सुदर्शन कर्म व्यापार कर्म व शिल्प इन छः प्रकार आजीविका के साधनों के द्वारा (तनुधनसुतहेतोः) शरीर धन व पुत्रके लाभ के लिए ( यादृक् कर्म ) जिस तरहका परिश्रम (करोषि ) तू करता है (यदि ) यदि (संयमार्थ ) संयम के लिए ( सक्कदपि ) एक दफे भी ( तादृक् ) बैसा परिश्रम ( विधत्से) करे ( तदा) तो ( कि) क्या ( अमल ) निर्दोष ( अनंतसुखं) अनंत सुखको (न अश्नुषे) नहीं भोग सके ? (अ) अवश्य तु भोग सकेगा । भावार्थ -- आचार्य कहते हैं कि गृहस्थजन इस शरीरमें मोही होकर इस शरोरको रक्षा व धन व संतानकी प्राप्तिके लिए दिन
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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