SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तस्वभावना रात उद्यम किया करते हैं कोई शस्त्रविद्या द्वारा सिपाही बन कर, कोई लिखने के काम से, कोई किसानी को, कोई कारीगरी को, कोई व्यापार को, कोई कला चतुराई को ऐसे नाना प्रकार के द्रश्य की प्राप्तिके उपायोंको करते हुए आकुल व्याकुल रहते हैं। द्रव्य के लिए देश-परदेश जाकर बहुत कष्ट उठाते हैं। तो भी उससे क्षणिक सुख प्राप्त होता है जिससे प्राणीको सन्तोष नहीं होता। तथा संसारका भ्रमण बढ़ता जाता है। इसलिए जो बुद्धिमान अविनाशी आत्मोक सुख प्राप्त करना चाहें उनको उचित है कि जितना परिश्रम वे लौकिक उन्नतिके लिए करते हैं उतनी मेहनत वे अनन्त सुख के लिए मोक्षमार्ग पर चलने के लिए व आत्मध्यान के लिए करें तो अवश्य उनको ऐसी तप्ति प्राप्त हो कि वे फिर कभी भी संसारमें दुःखी न हों। भवसागरसे पार ही हो जाये। इसलिए संसारके पदार्थों को नाशवंत समझकर उनसे मोह न करना चाहिए। सुभाषित रत्नसंदोह में अमितगति महाराज कहते हैंइमा रूपस्थानस्वजनतनयतव्ययनिता। सुता लक्ष्मोकीर्तिद्युतिरतिमतिप्रीतिपतयः ।। मवान्धस्त्रोनेमप्रकृतिचपलाः सर्वविना महो कष्टं मयस्तरपि विषयान्सेवितुमनाः ।।३२४ा मावार्थ-सर्व प्राणियों के ये रूप, स्थान, स्वजन, पुत्र, सामान, स्त्री, कन्या, लक्ष्मी, कीर्ति, चमक, रति, बुद्धि, प्रीति, धैर्य आदि सब ही मद में अन्ध स्त्री के नेत्र के समान चंचल हैं तब भी यह बड़े कष्ट को बात है कि यह मानव इन इंद्रियों के विषयों के सेवने का मन किया करता है !
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy