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________________ १५२ ] तत्वभावना भज्यतेत्य शरीरमंदिर शिवं सत्यतिपेन्द्र भामावित्युच्छ्वासमिषेण मानसबहिमिर्गत्य किं ।। पश्यंस्त्वं न निरीमसेऽतिचकितं तस्याति चेतनो । नामरचेष्टितानि कुरुले निर्धर्मकर्मोघमम् ॥५६।। ...अन्वयार्थ-(मानस) हे मन ! (मृत्यूद्विपेन्द्रः) मरण रूपी हाथी (एत्य) आकर (क्षणात्) क्षणभर में (इदं शरीरमंदिरम्) इस शरीररूपी घरको (भज्येत) तोड़ डालेगा (इति) ऐसा जानकर (त्व) तू (उच्छ्वास मिषेण) श्वासोच्छवास के बहाने (बहिः) वोहर (निर्गत्य निर्गत्य) आ-आकर (धति चकितं) अति भयभीड़पने से (पश्मन) देखता हुभा (वै) बड़े खेदकी बात है (तस्य आगति) उस मरण के आने की (चेतना) चेतना को (न निरीक्षसे) नहीं देखता है अर्थात मरण आने वाला है ऐसी बुद्धि अपने भीतर नहीं जमाता है (थेन) यही कारण है जिससे तू (अमरचेष्टानि)अपने को अजर अमर मानके भयंवहार करता हुभा (निधर्मकर्मोद्यमम्)धर्म रहित कर्मोका उद्यम(कुरुषे)करता रहता है। भावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने संसारी जीवके मनकी मुर्खता को बताया है कि यह मन मरणसे दिनरात डरता रहता है इसके डरके दृष्टांतको आचार्यने अलंकार देकर बताया है-कि प्राणी के जो श्वांस चला करता है सो यह श्वास नहीं है किन्तु मन बाहर आकर बार-बार डरते हुए देखता है कि कहीं मरणरूपी हाथी आ तो नहीं गया । जैसे किसीको कोई कह दे कि तुझे मारने को कोई शत्रु आनेवाला है तो वह उस शत्रु से बचने का उपाय तो न करें, बार-बार घरके बाहर आकर देखा करे कि कहीं शत्रु आ तो नहीं गया।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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