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________________ [ १०६ पाते हैं व उनका ही साधन मोक्षका साधन है। बिना शुद्ध निश्चयनयका आलम्बन पाए परसे विराग नहीं होता है परसे विराग बिना स्वात्माराम में विश्राम नहीं होता । यद्यपि आत्मा अमूर्तीक है तथापि उसको निर्मल जल के समान अपने शरीररूपी घट में देखना चाहिए और जैसे गंगा नदी में गोता लगाया जाता है वैसे अपने आत्मा के जल सदश निर्मल स्वभाव में अपने मनको डुबाना चाहिए। ॐ या सोऽहं मंत्र का आश्रय लेकर बारबार मनको आत्मारूपी नदी में डुबाने से मन का चंचलपना मिटता है और वीतरागताका भाव बढ़ता जाता है। आत्मध्यान ही परमोपकारी जहाज है। इसी पर चढ़के भव्य जीव संसार पार हो जाते हैं । अतएव ज्ञानी को आत्मध्यान का ही अभ्यास करना चाहिए । श्री शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में कहते हैं--- तस्वभावना विरज्यकामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम निर्मम यदि प्राप्तस्तदा व्यातासि नान्यथा ॥२३॥ भवक्लेशविनाशाय पिब ज्ञानसुधारसम् । कुरु जन्माब्धिमत्येतुं ध्यानपोतावलम्बनम् ॥१२॥ भावार्थ- कामभोगोंसे वैराग्य प्राप्त करके व शरीरकी भी वांछाको छोड़कर यदि तू ममता रहित हो जायगा तब ही तू ध्यान करने वाला होगा अन्य प्रकारसे नहीं । इसलिए संसार के क्लेशोंको नाश करने के लिए आत्मज्ञानरूपी अमृतके रसका पान कर तथा ध्यारूपी जहाज पर चढ़कर संसारसमुद्रसे पार हो जा । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द नहि होवे मुनिसंग साधन कभी नहि लोक पूजा कधी । नहि गुरु भक्ति न संस्तरं तृणमयी नहिं काठधरणी कधी ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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