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________________ १२४ ] ६ आदि पदार्थ (कायोपकारं ) इस शरीरका मला ( विदधते ) करते हैं (पुनः) परंतु (ते) वे भाव या पदार्थ ( संसारपयोविमज्जनपरा:) संसारसमुद्र में डुबाने वाले हैं इसलिए (सदाजीवापकारं ) हमेशा बुरा करते हैं (क) तथा ( जीवानुप्रहारिणः ) जो वीतराग भाव या तप, व्रत, संयम आदि जीव के उपकार करने वाले हैं वे (कायापकारं ) शरीरका बुरा (दिदधते) करते अर्थात् शरीरको संयमी व संकुचित रहने वाला बताते हैं (इति) ऐसा ( निश्चित्य ) निश्चय करके ( अनधधिया) निर्मल बुद्धिवान मानवको (विधा) मन, वचन, काय तीनों प्रकारसे (कायोपकारि) शरीरको लाभ देने वाले और आत्माका बुरा करने वाले `पदार्थोंको या भावोंको (विमुच्यते ) छोड़ देना उचित है । तत्त्वभावना भावार्थ - यहाँ पर आचार्यने बताया है कि शरीरका दासपना करोगे तो आत्माका बुरा होगा और जो आत्मा का हित करोगे तो शरीरका दासपना छूटेगा । वास्तवमें जो मानव स्त्री पुत्र धनादि सम्पदाओंमें मोही हो जाते हैं अथवा अपने आत्माके भीतर कर्मके उदयसे पैदा होने वाले रागादि भावोंमें तन्मय रहते हैं वे मोही जीव रातदिन अनादि सामग्री एकत्र करनेमें, रक्षण करने में व विषयभोगों में लगे रहते हैं। वे इन कामों से शरीर का रात-दिन चाकरीपन करते हैं, उसको बड़े आराम से रखते हैं । वे किचित् भी कष्ट सहकर अपने आत्माके हित की तरफ ध्यान नहीं देते, उनसे न जप होता न तप होता न व्रत 'पाले जाते न वे दर्शन पूजा स्वाध्याय करते न वे पात्रोंको दान देवेका कष्ट उठाते न वे सामायिक करते न संयम पालते न शुद्ध भोजन करते, वे हिंसादि पापों को स्वच्छन्द वृत्ति से करते हुए व तीव्र विषयवासना में लिप्त होते हुए ऐसे पापकमौको बांध लेते
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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