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________________ तत्त्वभावना [ १२५ कि जिनसे इस आत्मा को दुर्गतिमें जाकर वोर संकट भुगतना पड़ता और उसको उद्धारका मार्ग मिलना कठिन हो जाता है तथा जो बुद्धिमान इस मानव देहको धर्मसाधनमें लगाते जप, तप, शील, संयम पालते ध्यान स्वाध्याय करते वे अपने आत्मा का सच्चा हित करते उसे सच्चे सुखका भोग कराते, उसी मुक्ति के मार्ग पर चलते हैं । यद्यपि इसी तरह वर्तन करते हुए शरीरको काबमें रहना पड़ता तब शरीर अवश्य पहले की अपेक्षा कुछ सूखता। इतना ही नहीं ये सब कार्य जो मोक्षमार्ग के साधक है वे वास्तव में शरीर के नाशके ही सपाय हैं । इन साधनोंसे कुछ कालके पीछे शरीरका सम्बन्ध बिलकुल भी न रहेगा और यह शरीर ऐसा छूट जायगा कि फिर इसको यह मात्मा कभी नहीं ग्रहण करेगी। ऐसी व्यवस्था है तब ज्ञानीको यही करना उचित है कि शरीर जो पर पदार्थ है उसके पीछे अपना बुरा न कर डाले। उसे शरीरके मोह में नहीं पड़ना चाहिए और शरीर का सम्बन्धही न मिले ऐसाही उपाय करना चाहिए अर्थात् आत्मा के हित के लिए तप बादि आत्मध्यान को बड़े भाव से करना चाहिए यही आचार्य का भाव है। पूज्यपाद स्वामी ने भी इष्टोपदेश में कहा है :-- सज्जीवस्योपकाराय तदेहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय सोवस्थापकारकम् ॥१६॥ मावार्ष-जो बातें जीवको लाभको हैं उनसे शरीरका बुरा होता है तथा जिनसे देहका भला होता है उनसे जीव का उपकार होता है। इसमें ज्ञानीकी यही विचारना चाहिए कि कोईका घर नष्ट हो परन्तु घरमें रहने वाला बच जाय तो वह काम करना अच्छा
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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