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________________ ८०] तत्वभावना .............. .... ........... यह लक्ष्मी इन्द्रजाल के समान मिटने वालो है, यह स्त्री-पुत्रादिक कठिन बायु से चलाए हुए मेघों के समान जाने वाले हैं, इन्द्रिय विषयों का सुख पत्त स्त्री के नेत्र के समान 'चंचल है इसलिए उन नाशवंत पदार्थों के मिलने में हर्ष क्या व जानेमें शोक क्या? अर्थात् ज्ञानी इनके संबंध में राग व वियोगमें शोक नहीं करते हैं। मूलश्लोकानुसार छन्द मालती मा मेरो पहिणी मेरो मम घर मेरे बांधव मे पुवा। मेरा बाप सम्पदा मेरी, मेरा सुख' सज्जनजन मित्रा॥ या विधि धोर मोह ममतावश मद रही है शान सुनेत्रा । सुखकारी मिज हितसे प्राणी, दूर रहत है कार्यविचित्रा ॥२५ उस्थामिका--आगे कहते हैं कि पर पदार्थों के वियोग होने पर शोक न करना चाहिए विण्यासौ सहचारितापरिगतावाजन्मनायो स्पिरो । यत्रावार्यश्यों परस्पर मिमो विश्लिष्यसों गांगिनी ॥ खेवस्तव मनीषिणा मन कथं बाह्ये विमुक्ते सति । जात्यातीह विमुच्यतामनुदिनं विश्लेषशोक व्यथा ॥२६॥ अन्वयार्थ - (यत्र) जहां (यो) ये जो (अंगागिनी) दोनों शरीर तथा शरीरधारी जीव हैं (विख्याती) सो बड़े मशहूर हैं (सहचारिता परिगतो अनादिकालसे साथ-२ भाते चले आरहे हैं (माजन्मनायो स्थिरी) जन्म से लेकर मरण पर्यन्त दोनों स्थिर रहते हैं (इमो) इन दोनोंको (परस्परं) एक दूसरेसे (अवार्थरयो) विरह करना बड़ा ही कठिन है। तौमी (विश्लिष्यत:) इन दोनों का परस्पर वियोग हो जाता है (तत्र)वहां (बाह्य)बाहरी वस्तु स्त्री पुत्रादिके (विमुक्ते सति)छूट जाने पर (मनीषिणा)बुद्धिमान
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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