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________________ तावभावना। [७९ । संध्या होती है, संध्यासे सवेरा होता है । इस मोही प्राणीको इन्हीं पर पदार्थोका ही विचार रहता है । उनके रोगाक्रांत होनेपर उनकी दवाईमें, उनके वियोग होनेपर शोक करने में इस तरह । अपना मन उन्हींक याने साए रखता है। ए समय भर लिये भी सच्चे ज्ञानको नहीं विचारता है कि ये सर्व सम्बंघ क्षणभंगुर शरीरके हैं। इनसे मेरा सच्चा हित न होगा तथा यह पन और इंद्रियों के भोग्य पदार्थ मुझे कभी भी तृप्ति नहीं देते हैं। जितना मैं इनका संग्रह करता हूं उतना ही अधिक मैं प्यासा व तृष्णावान व चिंतातुर बना रहता है। यह जीव रात दिन मोहके प्रपंचसे नहीं छूटता। यह मितना अधिक मोह बढ़ाता है उतना अधिक अपने सच्चे हितकारी कार्यसे दूर होता चला जाता है, हाय हाय करते । हुए एक दिन मर जाता है और आत व रौद्रध्यान के कारण दुर्ग| लिमें चला जाता है। आचार्य कहते हैं कि मच्चा सुख तो आत्मामें है। यह अज्ञानी मोही जीव इसी आत्माकी विभूतिसे शून्य रहता. । हुआ योर संकटों में पड़ जाता है । तात्पर्य यह है कि पर पदार्थाका मोह करना मूढ़ता है | ज्ञानीको उनसे मोह न करके अपना लक्ष्य आत्मोन्नतिमें रखना उचित है। .. • अनित्यपंचाशत् में श्री पद्मन दे मुनि कहते हैं अभाबु इसन्निभा तनरिच श्रीरन्द्रजालोपमा ! दुर्वाताहतवारिवाहसदृशाः कतार्थपुन्नादयः । सौख्यं वैषयिक मदैव तरलं मत्तांगनामांगवत् । तस्मादेतदुपालवासिविषये झोकेन किं किं मुदा ॥४|| भावार्थ-यह शरीर पानी के बुझबु देके समान क्षणभङ्गुर है, यह
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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