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________________ 'मोक्ष में ले जाकर रक्खे, परमानन्दमय सुख का रसास्वादन करावे वो ही वास्तविक धर्म है। अहिंसा, अपरिग्रह और बने कान्त जैन संस्कृति को मल आत्मा है। यही जिनवाणी का सार भी है। भगवान जिनेन्द्र देव ने सम्य ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण सम्यग्दर्शन को ही कहा है वो ही मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है धर्म का बीच है। पांचों इन्द्रियों का दमन सिवाय सम्यग्ज्ञान के दूसरे से नहीं हो सकता है। प्राय: आज के आध्यात्मिक वक्ता, एकान्तवादी एवं निश्चयाभासी ये भूल जाते हैं कि सम्यकचारित्र के बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान मोक्ष प्राप्त करने में असमर्थ हैं। "जामत शद्रोपयोग पावत नाहीं मनोग, तावत ही करन योग कही पूण्य करनी।" धूप से छांव में बैठना सुखद है । प्रत, उपवास, व्यवहार, चारित्र पालन कर नरक निगोद से बचना श्रेष्ठ है। मुझे तत्वज्ञान है समस्त इन क्रियासों को छोड़कर मात्र अध्यात्म का ऊपर से गुणगान करेगा तो इधर का रहेगा ना उधर का और अनन्तों सागर दुःख उठाना पड़ेगा |समस्त शुभ क्रियाएँ तो छोड़ने योग्य हैं ही नहीं किन्तु उन्हें धर्म मानना गलत है। शुद्धोपयोग की अवस्था में स्वतः छूट जाती हैं छोड़ना नहीं पड़ता है। सम्यग्दर्शन रूपी हार को अपने हृदय में धारण करके, ज्ञानरूपी कुण्डलों को अपने दोनों कानों में पहनकर और चारिश्ररूपी मुकुट को अपने मस्तक पर धारण करना चाहिए। ये तीनों रत्न हो मोक्षरूपी लक्ष्मी को वश करने में कारण है । व्यवहार रत्नभय भी निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति में मुख्य निमित्त है परन्तु जब तक चित्त में बाह्य क्रियाओं की चिन्ता का समावेश रहेगा तब तक कभी भी रत्नत्रय का पालन नहीं हो सकता। यह विषयकषाय रागादि भावों से रहित है, मोका प्रदान करने वाला है । ये ध्यान के द्वारा जाना है वोत रागी मुनियों के ही होता है
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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