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रागियों के नहीं। अपनी निजी आत्मा ही तीन लोक का नाम है अनन्त अविनाशी गुणों का समुद्र है। ध्यान मार्ग से उसका स्वरूप जाना जाता है एवं जिस प्रकार समस्त कमों से रहित सिद्धों का स्वरूप शुद्ध है उसी प्रकार हमारी आत्मा भी द्रव्यदृष्टि से शुद्ध है इस प्रकार अपने अन्तरंग परमात्मामें जो श्रद्धान होना है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। उत्कृष्ट मात्मा ही ज्ञान है, जो स्वसंवेदन स्वरूप आत्मा का ज्ञान करना है वहो निश्चय सम्यग्ज्ञान है । यह निजात्मा सम्यक्चारित्र स्वरूप है । अन्तरंग में ध्यान के द्वारा जो स्वयं अपना आचरण करना है वही निश्चय चारित्र है। " पर द्रव्यन लें भिन्न आप में रुचि सम्यक्त भला है, अमरूप को जानपनी सः सम्यकज्ञान कला है। आप रूप में लोन रहे थिर सम्यकचारित्र सोई।" ऐसा ध्यान वीतरागी मुनियों के हो मुख्य रूप से सम्भव है । मात्र आत्मा आत्मा कहकर परिग्रह के संचय में लिप्त रहने बालों के नहीं। जो ज्ञानी चैतन्य स्वरूप उत्कृष्ट आत्मा-परमात्मा का ध्यान करते हैं उनके ध्यानरूपी अग्नि से अनन्ते कर्म पिंड देखते-२ भस्म हो जाते हैं।
अनादि काल से यह जोव चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में जन्म मरण के दुःखों को उठा रहा है लेकिन इसके दुःखों का अन्त नहीं आया। सभी जोव सुख चाहते हैं लेकिन सुख का उपाय कोई नहीं करना चाहता । अनन्तों सागर निगोद में रहकर मात्र दो हजार सागर कुछ अधिक के लिए बस पर्याय प्राप्त होती है जिसमें १६ भव पुरुष, १६ भव स्त्री एवं १६ भव नपुंसक पर्याय के प्राप्त होते हैं यदि इस में अष्ट कर्मों का विनाश करके मोक्ष की प्राप्ति नहीं की तो फिर अनन्तों सागर तक निगोद में जाना पड़ता है। ___ “यह मानुष पर्याय सुकुल सुनियो जिनवाणी" ऐसा सब मुख प्राप्त करके भी भविष्यत के अनन्तों भवों का नाश इसा पर्याय