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में करने का भाव लेकर कब मैं निग्रंथ मुनि बनं समाधि मरण करू, ऐसा भाव न आया तो जन्म निरर्थक होगा।
नाधकों के अष्ट मूल धारण करके, देव दर्शन, श्री जी का प्रक्षाल, पूजा पाठ, जाप, स्वाध्याय, सामाधिक, व्रत, उपवास, तीर्थयात्रा, दान, मुनि समागम, प्राणोमात्र पर करुणा का भाव ऐसा करते हुवे निम्न कार्यों का त्याग करना चाहिए। सप्त ध्यसन-मद्य, मांस, मध, अण्डा, जिमीकाद, रात्रि भोजन, २२ अभक्ष्य, चांदी व सोने का वर्क, होटल में जाना वहां जाकर खाना, रात्रि को शादी में भाग, राधिको शादी का पानी अनछना पानी पीना, पांच पाप इत्यादि । निरस्तर महाव्रती बनने की भावना रक्खे और अन्त में समता भावपूर्वक समाधिमरण करूं ऐसी भावना हमेशा भावे। ____ मैं किसी का भला बुरा कर सकता है या कोई मेरा कर देगा ऐसा कर्तृत्व भाव न लावे | कोई देवता मेरा भला बुरा कर सकता है, मैं कुटुम्ब का पालन करता हूं, चेतन स्त्री, पुत्र कुटुम्बी अचेतन धन, मकान, परिग्रह से राग द्वेष मोह घटाये, मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करे-त्रिकाली ध्रुव अजर अमर आत्मा एकाको है अपनी है बाकी समस्त पदार्य, मेरा शरीर भी पर है ऐसा दृढ विश्वास लाकर अहंकार ममकार का त्याग करे। "जीव जुदा पुद्गल जदा, याही तत्व को सार | सब ग्रन्थों में 'पढ़ लोजिए, है याही को विस्तार ।" "लाख करोड़ ग्रन्थन को सार, भेद ज्ञान और दया विचार।" जब शरोर भी मुझसे भिन्न है तो फिर बाकी सभी पदार्थ तो साक्षात् भिन्न दिख ही रहे हैं ।
इस जगत का बनाने वाला, पालन हारा, विनाश करने वाला कोई ईश्वर नहीं है । जगत अनादि निधन है । अपने स्वयं के किले कर्मों के अनुसार जोवों को सुख-दुःख भोगना पड़ता है। इन सभी बातों का वर्णन अमितगति आचार्य ने बहुत ही सुन्दर