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________________ तस्वभावता चक्रवर्ती सम्राटभी जो इंद्रिय भोंगोंके दास होते हुए आत्मज्ञान रहित होते हैं। वे भी जिन्दगी भर चिन्ता और आकलता में ही काटते हैं अन्य साधारण मानवों की तो बात ही क्या है ? जिन-२ परपदार्थोके संयोगसे यह मानब सुख मानता है वे पदार्थ इसके आधीन नहीं रहते उनका परिणमन अन्य प्रकार हो जाता है व उनका यायक वियोग हो जाता है। बस यह मानव उनके वियोगसे महान दुखित होता है । देवगति में यद्यपि शारीरिक कष्ट नहीं है क्योंकि वहाँ शरीर वैक्रियक होता है जिसमें हाड़ चमड़ा, मांस, नहीं होता है उनको मानवों के समान खाने पीने की जरूरत नहीं होती। उन श्री मुख जगतो है तब कंठ में अमृत झड़ जाता है, तुर्त भूख मिट जाती है। रोग शरीर में नहीं होते, कोई खेती व व्यापार करना नहीं पड़ता। शरीर के लिए किसी वस्तु की चाह करनी नहीं पड़ती मनोरंजन करने वाली देवियों होती हैं जो अपने हाव भाव, विलास, गान आदि से मनको प्रसन्न करती रहती है । तथापि मानसिक कष्ट सब जगह से अधिक होता है जो आत्मज्ञानी देव हैं उनको छोड़कर जो अज्ञानी देव हैं वे एक दूसरेको अपने से अधिक सम्पत्ति वाला देखकर मनमें ईर्याभाव रखते हैं सदा जलते रहते हैं। भोगनेके लिए पदार्थ अनेक चाहते हैं उनके भोगने की काकुलतासे आतुर रहते हैं । देवो की आयु कम होती है देवकी आयु बड़ी होती है, बस जब कोई देवी मर जाती है तो उसके वियोगका दुःख सहते हैं, अपना शरीर छूटने लगता है तब बहुत विलाप करते हैं कि ये भोग छूटे जाते हैं क्या करें।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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