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________________ ३२२ ] आरमध्यान का उपाय (७५) स्नातक निर्मन्थ, (७६) सयोगिजन (७७) परमनिर्जरारूढ़ ( ७० ) परमसंवरपति (७९) आस्रवनिर्वारक, (१) गणनायक (८२) मुनिगणश्रेष्ठ, (८४) आत्मरमी (८५) मुक्तिनारभता, (८७) परमानन्दी (८८) परमतपस्वी, ( ८० ) शुद्ध (८३) तत्ववेत्ता ( ८६) परम वैरागी ( ८६) परक्षमावान, (६०) परमसत्यधर्माद, (११) परमशुचि, (१२) परमत्यागी (६३) अद्भुत ब्रह्मचारी (६४) शुद्धोपयोगी (६५) निरालम्ब (६६) परमस्वतन्त्र (६७) निर्बेर, (८) निर्विकार (६६) मात्मदर्शी, (१००) महाऋषि इत्यादि । J · I इस तरह विचार करके उनके परमवीतराग स्वरूप में ही अपने मनको जोड़ देवे । बार बार देखकर उनमें प्रेमालु हो जावे । ऐसा विचारते विचारते वह द्वैतभाव से अद्वैत में काजावे अर्थात् अपने आत्मा को ही सर्वज्ञ व अरहंत मानने लग जाये जैसा कहा है एष देवः स सर्वज्ञः सोहं तद्रूपतां गतः । तस्मात्स एव नान्यो विश्वदर्शीति मन्यते ॥ ४३ ॥ भावार्थ - जिस समय सर्वज्ञ स्वरूप अपने को देखता है उस समय ऐसा मानता है कि जो देव है वही मैं हूँ, जो सर्वश है वही मैं हूँ, जो आत्मस्वरूप में लगा है वही मैं हूँ, सर्वज्ञ देखने वाला जो कोई है वह मैं ही हूँ, मैं और कोई नहीं हूँ इस तरह में हो साक्षात् अरहन्त स्वरूप वीतराग परमात्मा हूँ ऐसी भावना करके उसी में स्थिर हो जावे। यह अरहंतके स्वरूपके द्वारा निज आत्मा का ध्यान है जिसको रूपस्य ध्यान कहते हैं। पण्डित जयचंदजी कहते हैं
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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