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तस्वभावना
भावार्य-यहां आचार्य ने दिखलाया है जो भनि संपम का भले प्रकार अभ्यास करते हैं वे शुक्लध्यान के प्रताप से सर्व कर्म बंधनों को नाश कर व शरीर से रहित होकर मात्र एक अपने आत्मीक सत्ताको स्पिर रखते हुए स्वभाव से ऊपर जाकर तीन लोक के ऊपर सिद्ध क्षेत्र में अनंतकाल के लिए ठहर जाते हैं । वहांपर सर्व आत्माके गुण पवित्र हो जाते हैं और सर्व गुण अपने स्वभाव में सदश परिणमन किया करते हैं। वहां न कोई ज्ञानमें बाधा होती है न वीतरागता में बाधा होती है न वीर्य में बाधा होती है। इसलिए यह आत्मा परम स्वतन्त्रता से अपनी सम्पूर्ण सम्पत्तिको भोग करता हुआ अपने भानन्द में तृप्त रहता है तथा त्रिलोक पूज्य हो जाता है। तीन लोक के प्राणी उसकी पूजा करते हैं उसीको परमात्मा, परब्रह्म व परमेश्वर मानते हैं। यहां
पर आचार्य ने दृष्टांत दिया है कि जो पुरुष परिश्रम करके पर्वत शिकी चोटी पर चढ़ जाता है वह स्वयं ही सर्व जगतके प्राणियों से
ऊँचा हो जाता है। उस पुरुष के लिए सारी पृथ्वी नीचे हो जाती है। यहां यह भी भाव है कि जैसे उद्यमी पुरुष सुमेरु पर्वत पर चढ़नेसे सर्वोच्च हो जाता है इसी तरह जो मोक्षमार्ग पर चढ़ता चला जाता है और गुणस्थानों के क्रम से उन्नति करता जाता है वह स्वयं ही अपने गुणों की वृद्धिके कारण औरों से ऊंचा होता है। इसी तरह अब वह चलते-२ मुक्त हो जाता है तब वह परमारमा होकर लोकान में विराजमान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान प्राणीको उचित है कि क्षणिक संसार की संपदा के लिए अपना नर जन्म न खो देखें किंतु इस देह में संयम पालन के लिए खूब परिश्रम करे तो यह श्रम ऐसा सफल होगा कि इसे परमात्मा बना देगा और अधिक क्या चाहिए।