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________________ तसमानः को (न रचयंति) नहीं पैदा करते हैं ? अर्थात् उनका चारित्र माश्चर्यकारी ही है। भावार्थ-यहाँ फिर आचार्य ने सम्यग्ज्ञानमई आत्मज्ञानको महिमा दिखलाई है और दिखलाया है कि ज्ञान की सेवा करना ही चारित्र है। यह सम्यग्ज्ञानरूपी अग्नि सम्यग्दृष्टी महात्मा के भीतर प्रगट होती है, वह सम्यग्दृष्टी अपनी सम्यग्दर्शनरूपी हवा से उसे नित्य बढ़ाता रहता है । अर्थात् आत्मश्रद्धा पूर्वक आत्मज्ञानका ध्यान करता है । तब जितना-२ आत्मध्यान बढ़ता है उतना-२ ही कर्मकाष्ठ अधिक-२ बलता है, रागादि अन्धकार अधिक-२ दूर होता है, और ज्ञानकी आग बढ़ती हुई चली जाती है। जब यह आत्मध्यान की अग्नि चार घातियाकर्मों को जला देती है और सारे ही अंतरंग रागद्वेष के अंधेरेको मिटा देती है तब यह ज्ञानकी अग्नि अन्तित सीमाको पहुँचकर महा विशाल केवलज्ञानरूप हो जाती है । उस समय सर्वही द्रव्य अपने गुण व पर्यायोंके साथ एक ही काल झलक जाते हैं फिर केवलज्ञानरूपी अग्नि कभी बुझती नहीं है-सदा ही जलती रहती है। जिन्होंने ऐसे आत्मध्यानरूपी चारित्रको आचरणकर ऐसी अपूर्व ज्ञानअग्निको प्रकाश कर डाला है उन साधुओं का ऐसा विचित्र ध्यानका परिश्रमरूप चारित्र वास्तव में साधारण मानवों के मनमें आश्चर्य उत्पन्न करने वाला है। तात्पर्य यह है कि मुमुक्ष जीवको निर्मल भेदज्ञान द्वारा आत्मज्ञानरूपी अग्निको निरन्तर जला कर उसीको सेवाकर अपने को शुद्ध कर लेना चाहिए। पद्मनंद मुनिने परमार्थविशति में आत्मध्यानका व आत्मतत्व में एकान होने की भावना भाई है-- देव तत्प्रतिमां गरुं मुनिजनं शास्त्रावि मन्य महे । सर्व भक्तिपरा वयं व्यवहतौ मार्ग स्थिता निश्चमात् ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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