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________________ २४४ ] अस्माकं पुनरेक्ताश्चयणतो व्यक्ती मवच्चिद्गुण - स्फारी समतिप्रबंध महसामात्मैव तत्वं परम् ॥१३॥ तवाना भाषार्थ – जब हम व्यवहार मार्गमे चलते हैं तब हम श्री जिनेन्द्रदेव, उनकी प्रतिमा, जिन गुरु व साधुजन तथा शास्त्रादि सबकी भक्ति करते हैं परन्तु हम जब निश्चय भाग में जाते हैं तब प्रगट चैतन्य गुण से झलकती हुईं भेदविज्ञान की ज्योति जल जाती है उस समय हम एकभाव में लय हो जाते हैं तब हमको उत्कृष्ट तत्व एक आत्मा ही अनुभव में आता है । अर्थात् जहां शुद्ध आत्मा के सिवाय अन्य कुछ तुम न बने वहीं आत्मध्यान है । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जिनके भीतर ज्ञान अग्नि बढ़ती सम्यक्तकी पवन से । ईंधन कर्म जलाय शेष मन सब कर दूर निज रमन से ॥ उनके केवलज्ञान रूप होकर निस आप जलती रहे। तिन मुमि पालनहार आत्मचर्या आश्चर्य करती रहे ॥६५॥ उत्थानिका – आगे कहते हैं कि जब तक किंचित् भी स्नेहका लगाव रहेगा तब तक कमका नाश न होगा । इसलिए ध्यानी को वीतरागी होना चाहिए यावकमेतसि बाह्यवस्तुविषयः स्नेहः स्थिरो वर्तते । तावन्नश्यति दुःखदान कुशलः कर्मप्रपंत्रः कथम् ॥ आद्वत्वे वसुधातलस्य सजटाः शुष्यंति किं पावपाः । मज्जत्तापनिपातरोधनपराः शाखोपशाखान्विताः ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ -- ( यावत्) जबतक (चेतसि ) चित्तमें (बाह्यवस्तुविषयः ) बाहरी पदार्थ संबंधी (स्नेहः ) राग (स्थिर: ) थिररूप से
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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