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________________ १७० ] तत्वभावना न स्यात् ध्यातुं प्रवृत्तस्य चेतः स्वप्नेपि निश्चलं । मुनेः परिग्रहप्राहमिद्यमानमनेकधा ॥३६॥ भावार्थ- जिस मुनि का मन परिग्रहरूपी पिशाच से अनेक सेपी का ध्यान करते समय स्वप्न में भी निश्चल नहीं रह सकता है। मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द घर विविध कषाये ग्रंथ कर भेष नाना । यदि यति गण चाहें कर्म से छूट जाना । शशक हाड़ छिद्रं शिशु सिंह नहिं छेद पावे । किम हस्ती यूथं थामें प्रवेश पावे ॥ ६३॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जो स्त्रियों के सुख को सुख जानते हैं उनकी समझ ठीक नहीं है । कष्टं वंचनकारिणीष्वपि सदा नारीषु तृष्णापराः । शर्माशां न कदाचनापि कुधियो मर्त्या विपर्याशया ॥ मुंचते मृगतृष्णिकास्विव मृगाः पानीयकांक्षां यतो । धिमतं मोहमनर्थदानकुशलं पुंसामवार्योदयम् ||६४॥ अन्वयार्थ - ( कष्टं ) यह बड़े दुःखको बात है कि ( विपर्याशया:) विरुद्ध अभिप्राय रखने वाले मिथ्यादृष्टि ( कुधिया : ) और मिथ्यात्व बुद्धिधारी ( मर्त्याः ) मनुष्य ( वचनकारिणी अपि नारीषु ) मानव के मनको फँसाने वालों स्त्रियों में भी (सदा तृष्णापराः ) सदा तृष्णाको रखते हुए ( कदाचनापि ) कभी भी ( शर्मा ) सुख की आशा को (न मुंचते) नहीं छोड़ते हैं (मृगाः भुगतृष्णिकासु पानोकांक्षा इव) जैसे हिरण मृग जलमें अर्थात् पानी जैसे
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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