SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वभावता [ १६६ लेकर तथा मनमानी परिग्रह व मनमाने तरह-२ के भेषों को रख लें तथा क्रोध मान माया लोभादि कषायों को भी न छोड़ें और यह मान लें कि हम मुनि हैं, हम तो जरूर कर्मों से छूटकर मुक्त हो जावेंगे तो उनका यह मानना एक असंभव बात को सम्भव करनेकी इच्छा करना है। जैसे यह असंभव जि. अरमोर की हड्डी के भीतर ऐसा महीन कोई छेद हो जिसको सिंहका बच्चा भी नहीं फाड़ सके उस छेदके भीतर कोई मान ले कि हाथियों के समह घुसे चले जावेंगे तो यह मानना बिलकुल असंभव है उसी तरह यह मानना असंभव है कि अंतरंग व बहिरंग को परिग्रहको त्यागे बिना कोई मुक्तहो जायगा ! परिग्रह और क्रोधादि कषाय हो तो संसारके बढ़ाने वाले हैं बंधको नित्यप्रति कराने वाले हैं उनके रहते हुए मानना कि मैं मुक्त हो जाऊँगा बिलकुल उन्मत्तका भाव है। प्रयोजन कहने का यह है कि यदि मुक्ति के परमानन्द को भोगना चाहते हो तो सर्व परिग्रहकोध कषायादि भावोंको त्यागो । पूर्ण साम्यभाव रूपी चारित्रका आश्रय लो। तब ही वीतरागता झलकेगी, यही परिणति कमौकी निर्जरा कराने वाली है तथा मोक्षकी प्राप्ति कराने वाली है। परिग्रह मोक्षमार्ग में बाधक है ऐसा श्री शुभचन्द्र आचार्य शानार्णव में कहते हैं अपि सूर्यस्स्यजेधाम स्थिरत्वं वा सुराचलः । न पुनः संगसंकीर्णो मुनिः स्यारसंवतेन्द्रियः ॥२६॥ भावार्थ-यदि कदाचित् सूर्य तो अपना तेज छोड़ दें और सुमेरु पर्वत अपनी स्थिरता छोड़ दे तो भो अंतरंग-बहिरंग परि. ग्रह सहित मुनि कभी जितेन्द्रिय नहीं हो सकता है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy