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तत्त्यभावना
अन्ययार्थ--(मया) मेरे से (यत्किंचित् ) जो कुछ (मात्रापदबाक्यवाच्यविकल)मात्रा,पद, वाक्य व अर्थ में कम बढ़(भाषितं) कहा गया हो (स्त् शनिं) उस सर्वको क्षमित्वा) क्षमा करके (कषायदर्पविषयव्यामोहसक्तात्मनः) क्रोधादि कषाय, गर्ष, ५ विषयों की चाहना में आसक्त (अस्म बालस्य मे)ऐसा जो बालक समान में उसे (जिनवक्त्रपद्मनिलया) जिनेन्द्र के मुख कमल में निकास करने वाली (वाग्देवी) सरस्वती देवी अर्थात् जिनवाणी (अजिततमी) उत्कृष्ट (ज्ञानविद्धि) ज्ञान की निर्मलता को (दवा) देकर (अनिद्यं पदं) परम प्रशंसनीय मोक्षपद (देयात्) प्रदान करें।
भावार्थ-यहां पर आचार्य ने दिखलाया है कि जिनवाणी को शुद्ध ही पढ़ना चाहिए और शुद्ध ही उसका अर्थ समझना चाहिए फिर भी यदि कमी प्रमादसे कुछ भूल हो गई हो, किसी वचन को कमबढ़ कह दिया हो तो उसके कारण जो पापबंध हुआ हो उस को दूर करने के हेतु से यह भव्यजीव प्रतिक्रमण या पश्चाताप करता है जिनवाणी मुझपर क्षमा करे यह मात्रभक्ति करने का व उच्च भावना भाने का एक प्रकार है जिससे भावों में यह बात आजावे कि मुझे शुद्ध ही पढ़ना चाहिए। फिर वह जिनवाणी को हृदयमें धारकर यह विचारता है कि मैं बिलकुल अज्ञानी हूं इसोसे क्रोध, मान, माया व लोभ कषायोंके वशीभूत हो जाता हूँ या पांचों इन्द्रियोंके विषयों में आशक्त हो जाता हूं जिससे मेरे भावों में अशुद्धि हो जाती है और मैं कर्मों का बंध कर लेता है। अब में यह प्रार्थना करता हूं कि जिनवाणी के निरन्तर मननसे यह मेरी कलुषता मिटे और परम शुद्धता मेरे आत्माको प्राप्त हो अर्थात् शुद्धोपयोग रहा करे जिससे मैं अवि