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________________ ५४ ] तरखभावना मूलश्लोकानुसार मालिनी छन्द तव चरणजिनेन पाप नाशक बताए । हृदय धरूं अपने मोह तम सब भगाए || दीपक सम रक्खूं कील डालूं बिठाऊं । पूजित इन्त्रों में सीमजा मार्क || उत्थानिका – आगे कहते हैं कि परका संयोग न रहना ही सुखकर है संयोगेन दुरंत हमभुवा दुःखं न कि प्रापितो । येन त्वं भवकानने भूतिज राव्या प्रजाध्यासिते ॥ संगस्तेन न जायते तत्र यथा स्वप्नेऽपि दुष्टात्मना । किचित्कर्म तथा कुरुष्व हृदये कृत्वा मनो निश्चलम् ॥ १७ ॥ अन्वयार्थ - ( मूतिजराव्याघ्रवजाध्यासिते) मरण और जन्म रूपी बाघों के समूह से भरे हुए ( भवकानने) इस संसार वन में ( दुरंत रकल्मषभुवा) तीव्र पानको पैदा करने वाले ( येन ) जिसके ( संयोगेन ) संयोग से ( त्वं) तुमने (किं दुखं) क्या २ दुःख (न) नहीं ( प्रापितः ) पाया है (तेन) उस (दुरात्मना ) पापी के साथ ( तव संगः) तेरा संग ( यथा) जैसे ( स्वप्नेऽपि ) स्वप्न में भी (न जायते) नहीं हो (तथा) तेसे (किंचित् कर्म ) कोई काम (निश्चलं ) स्थिर ( मन ) मन को (कृत्या) करके (हृदये) हृदय के भीतर ( कुरुष्व ) कर । भावार्थ - यहां भी आचार्य ने संकेत किया है कि मोह की गाँठ जो तेरे दिलके भीतर पड़ी है उसको काट डाल । वास्तव में मोह बड़ा पापी व दुष्ट है । इसी की संगति में यह प्राणी रहकर संसार के स्त्री, पुत्र, मित्र, धनादि परिग्रहको अपना माना करता
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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