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________________ तस्वभावना [ ५३ रहना चाहिए। अहंद्भक्ति को साधुजन भी नित्य करते हैं । उनके नित्य छः आवश्यक कर्मों में स्तुति और वन्दना कर्म हैं । मृहस्थ जब प्रत्यक्ष भक्ति श्रीजिनेन्द्र की प्रतिमाओं के निमित्तसे अधिक तर करते हैं तथा परोक्ष भक्ति कम करते हैं तब साधुजन परोक्ष ! भक्ति अधिक करते हैं। प्रत्यक्ष भक्ति जब जिन मंदिर का समागम होता है तब करते हैं। भावों को जोपयोग से छुड़ाकर शुभोपयोग में लगाने के लिए अर्हतभक्ति बड़ा प्रबल उपाय है । गृहस्थों को नित्य अहंत भक्ति करके अपने-२ भावों को उज्ज्वल करना योग्य है । यद्यपि अरहंत वीतराग हैं, हमारी भक्ति किए। जाने से प्रसन्न नहीं होते हैं तथापि उनके गुणों के स्मरण से व उनके शांति स्वरूप के दर्शन से हमारे भाव शांत हो जाते हैं इस- | लिए भगवद्भक्ति निमित्त कारण है। हमारे कल्याण के लिए } ऐसा मानने में कोई हानि नहीं है। अहंभक्ति क्षणमात्र में बड़े बड़े पापों को काट देती है और महान् पुण्य को बांध देती है। ज्ञान सहित अहंभक्ति मोक्षमार्ग है । यह १६ कारण भावना में एक उत्तम भावना है। श्री पद्मनंदि मुनि सबोध चन्द्रोदय में कहते हैंसंविशुद्धपरमात्मभावना संविशुद्धपक्कारणं भवेत् । सेतरेतरकृते सुवर्णतो लोहतश्च विक्रतो तदाधिते ॥२०॥ भावार्थ-शुद्ध परमात्मा की भावना शुद्ध पद की कारण हो जाती है तथा अशुद्ध आत्मा की भावना अशुद्ध भाव के लिए कारण है 1 सोते से सोने की चीज व लोहे से लोहे की चीज बनती है । अतएव श्रीजिनेन्द्र परमात्माके गुणोंका चिन्तवन सदा ही करते रहना चाहिए, क्योंकि यह चितवन पोतरागभाव में पहुंचाने वाला परम मित्र है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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