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________________ सामानना है तब किसी से राग, किसी से द्वेष करता है, इस मोह राग-द्वेष के कारण तीन पाप का बंध करता हुआ संसार वन में भ्रमता है, जिस बन में बुढ़ापा होना और मरना ये दो बड़े बाघ हैं जो इसको पकड़कर दुःखी करते व सताते हैं इसके सिवाय अनेक शारीरिक और मानसिक क्लेश प्राप्त होते हैं इस संसार के भीतर चार गतियां हैं, जहां हो जाता है वहां ही आकुलतामें पड़ जाता है । देवगति में भी इंद्रिय भोगों की आकुलता रहती है व इष्ट का वियोग होता रहता है व अन्य की अधिक संपत्तिको देख कर दिल में जलन पैदा होती है। बारबार इस संसार में मरता है और कष्ट उठाता है। श्रीगुरु कहते हैं- इस मोह के वश में पड़ा हुआ तुझे अनेतकाल संसार वन में चकार देते हुए और भटकते हुए बीत गया। तू जन्म मरण करना हो रहा और भयानक दुःखों को पाताही रहा, अब कुछ पुण्यके उदयसे यह मानव जन्म पाया है तथा सत्संगति से उस जैनधर्म के रहस्य को जाना है जो जीवों को संसार वन से निकालकर मुक्ति के अचल धाम में विराजमान कर देता है। इसलिए अब प्रमाद को छोड़कर ऐसा कोई उद्यम करना उचित है जिससे इस मोह शत्रुसे पल्ला छूटे और संसार का भ्रमण मिटे और परम निराकुल पद प्राप्त हो । उपाय यही है कि मन को निश्चल किया जाये, मिथ्यादर्शन के विष को उगला जावे, सम्यग्दर्शन रूपी परम अमृत को प्राप्त किया जावे, भेद विज्ञान के प्रताप से आत्मानुभव को जागृत किया जावे, आत्मीक आनंद में विलास किया जावे, यह आनंद भोग ही ऐसा अपूर्व शास्त्र है जो मोहको खंड-२ कर देता है। इसी ही अमोघ शस्त्र से मोह-शत्रुका नाश हो जाता है और यह आत्मा मोह से छूटकर शीघ्र ही अहंत परमात्मा होकर अनंत सुख में मग्न हो जाता है, फिर पारीर रहित हो सिद्ध होकर
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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