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________________ तत्त्वभावना [२०६ उन द्रव्यों की जो अवस्थाएं होती हैं वे उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं। अवस्थाएं कभी भी थिर नहीं रह सकती हैं। हम सबको अवस्थायें ही दीखती हैं तब ही यह रात-दिन जानने में आता है कि अमुफ मरा व अमुक पैदा हुमा, अमुक मकान बना व अमुक गिर पड़ा, अमुक वस्तु नई बनी व अमुक टूट गई। राज्यपाट, धन, धान्य, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि सर्व ही पदार्थ नाश होने वाले हैं । करोड़ों की सम्पत्ति क्षणभर में नष्ट हो जाती है। बड़ा भारी कुटम्ब क्षणभर में कालके गाल में समा जाता है, यौवन देखते-२ विलय हो जाता है, बल जरा सी देर में जाता रहता है। संसार के सर्व ही कार्य घिर नदी रह सकते हैं । जब ऐसा है तब ज्ञानी इन अथिर कार्यों के लिए उधम नहीं करता है। वह इन्द्रपद व चक्रवर्तीपद भी नहीं चाहता है क्योंकि ये पद भी नाश होने वाले हैं। इसलिए वह तो ऐसे कार्यको सिद्ध करना चाहता है कि जो फिर कभी भी नष्ट न हो । वह एक कार्य अपने स्वाधीन व शुद्ध स्वभाव का लाभ है । जब यह आत्मा बन्ध रहित पवित्र हो जाता है फिर कभी मलीन नहीं हो सकता और तब यह अनन्तकाल के लिए सुखी हो भासा है । मूर्ख मनुष्य ही वह काम करता है जिसमें परिश्रम तो बहुत पड़े, पर फल कुछ न हो। बुद्धिमान बहुत विचारशील होते हैं, वे सफलता देनेवाले ही कार्यों का उद्यम करते हैं। इसलिए सुख के अर्थी जीव को आत्मानन्द के लाभ का ही यत्न करमा धचित है। सुभाषित रत्नसंदोह में अमितगति महाराज कहते हैंएको मे शाश्वतारमा सुखमसुखभुजो ज्ञानष्टिस्वभावो। नाम्यत्किधिनिज में तनुघनकरणमातमार्यासुखादि ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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