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________________ २०८ ] तत्त्वभावना नरगतिमें हो रोग इष्टविछुड़न सुरमन जनित दुखलहै, बुधचाहुंगनि वृखजान बुद्धि अपनी शिकहेतुकर अघ रहें । उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जगतके क्षणभंगुर पदार्थों के लिए गरज करना लगा है। सर्वे नश्यति पत्नतोपि रचितं कृत्वा श्रमं दुष्कर। कार्यरूपमिव क्षणेन सलिले सांसारिक सर्वथा ।। यत्सवापि विधीयते बत कुत्तो मूढ प्रवृत्तिस्त्वया । कृत्ये क्वापि हि केवल अम करे न व्याप्रियंते बूधाः ।।८०) अन्वयार्थ --(सलिल) पानीमें (रूप इव) मट्टीकी पुतलीके समान (दुष्करं) कठिन (श्रम) परिश्रम (कृरका) करके (यत्नतः अपि रचितं) यत्न से भी बनाया गया (सर्व) सब (सांसारिक कार्य) संसारका काम (क्षणेन) क्षणभर में (सर्वथा नश्यति) बिलकुल नाशहो जाता है । (यतः जब ऐसा है तत्र(मूढ़) हे मूर्ख (त्वया) तेरे द्वारा (तत्रापि) उसी संसारी कार्य में ही (वत) बड़े खेद की बात है (कुतः) क्यों (प्रवृत्तिः) प्रवृत्ति (विधीयते) को जाती है ? (बुधाः) बद्धिमान प्राणो (केवलनमकरे) खाली बेमतलब परिश्रम करानेवाले (कृत्ये) कार्य में (क्वापि) कभी भी (हि) निश्चय करके (न व्याप्रियन्ते) व्यापार नहीं करते हैं। भावार्थ-जैसे मिट्टी की मूर्ति पानोंमें रखने से गल जाती है वैसे संसार के जितने काम हैं वे सब क्षणभंगुर हैं । जव अपना शरीरही एक दिन नष्ट होने वाला है तब अन्य बनी हुई वस्तुओं के रहने का क्या ठिकाना ? असल बात यह है कि जगतका यह नियम है कि मूल द्रव्य तो नष्ट नहीं होते न नये रंदा होते हैं परंतु
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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