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________________ २४६] तस्वभावना कुछ पुष्टि देता है परन्तु उसकी जड़ को मजबूत नहीं करता है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टी के भीतर का जो कर्मरूपी वृक्ष है वह एक न एक दिन बिलकुल सूख जायगा । बिसकी जड़ कमजोर हो गई है वह अधिक दिन नहीं चल सकता है। सम्यग्दृष्टी के भीतर पूर्ण वैराग्य इस तरह का होता है कि वह परमाणु मात्र भी परवस्तुको अपनी नहीं मानता है । उसके उदयप्राप्त कषायों के उदयसे जो कर्मबंध होता है उसको भी कर्मविकार जानता है। फिर आत्मानुभवके अभ्याससे जितना-२ राग घटता जाता है उतना-२ कर्मवृक्ष सूखता जाता है। जब वीतराग हो जाता है तब सर्व कमों से रहित शुद्ध हो जाता है। प्रयोजन कहने का यह है कि ज्ञानी को उचित है कि वीतरागभावके द्वारा आत्मध्यान का अभ्यास करे।। स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंमोगा नश्यन्ति कालात्स्वयमपि न गुणो जायते तत्र कोपि । सज्जीवतान् विमुच व्यसनमयकरानात्मना धर्मबुद्धया ।। स्वातंव्यायेन याता विवधति मनसस्तापमत्यन्समुग्रं । तन्वन्त्येते न मुक्ताः स्वयमसमसुखं स्थात्मज नित्यमय॑म् ।४१३ भावार्थ-ये इंद्रियोंके भोग काल पाकर स्वयं नष्ट हो जाते हैं इनके भीतर कोई भी सार गुण नहीं मिलता है इसलिए हे जीव ! तू इन आपत्ति व भयके करने वाले भोगों को आप ही अपनी धर्म में बुद्धि लगाकर छोड़ दे क्योंकि ये भोग स्वतंत्र रहते हुए मन में बड़े भारी संतापको पैदा करते हैं और यदि इनको छोड़ दिया जाय तो ये जीव स्वयं ही पूजने योग्य और नित्य ऐसे अपने आत्मीकसुख को भोगते हैं जिस सुख के समान कोई सुख नहीं है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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