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________________ तस्वभावमा [ १६१ भावार्थ-वहाँ आचार्यने बड़ी ही सुन्दर युक्तिसे यह समझा दिया है कि बुद्धिमान प्राणी को न तो भरनेसे डरना चाहिए, न मांगोंको इच्छा करनी चाहिए और न वियोग हुई वस्तु का शोक करना चाहिए। जगत के प्राणी इन्हीं भूलों में फंसे रहते हैं। यह बात जब निर्णय की हुई है कि जब आयुकर्म समाप्त हो जायगा तब इस शरीर को आत्मा अवश्य छोड़ जायगा तब सर भय करना कि कहीं मरण न हो बड़ी भारी मुर्खता है। व कायराना है। बुद्धिमान प्राणी कभी भी बेमतलब मौतसे डरता नहीं किन्तु वीर पुरुष की तरह जब मरण आवे तब मरने को तैयार रहता है। जब यह देखा जाता है कि संसारमें अधिकतर चाहे हुए इंद्रियोंके विषय नहीं प्राप्त होते हैं किन्तु जैसा न चाहो वैसा पदार्थ प्राप्त हो जाता है तब फिर वृथा पदार्थों के लिए तृषातुर व अभिलाषावान रहना अपने मनको क्लेषित रखना है । बुद्धिमान मनुष्य आमामी भोगों की तृष्णा से क्लेशित नहीं होता है जो पुण्यके उदयसे पदार्थ प्राप्त होता है उसी में सन्तोष कर लेता है। यह जब पक्का निश्चय है कि जो प्राणी मर गया वह फिर उसी शरीरमें आ नहीं सकता तब बुद्धिमान कभी भी अपने मरण प्राप्त माता, पिता, पुत्र, पुत्री, स्त्री, मित्र आदि का शोक नहीं करता है । शोक करने से परिणामों में क्लेश होता है वह क्लेश यहाँ भी दुःखी करता है व आगामी के लिए असातावेदनीय का बंध करा देता है । इत्यादि बातोंको विचारकर जो चतुर मानव हैं वे कभी भी निरर्थक काम नहीं करते हैं वे जिस काम को करते हैं उसका फल पहले ही विचार लेते हैं जिसका फल पहले ही विचार लेते हैं। जिसका फल होना निश्चय है उस हो काम को करते हैं।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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