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________________ तत्वभावमा दीपक के समान स्वपर प्रकाशक है। ऐसा होकर के भी अनादि कालके प्रवाहरूप कर्मों के बंधन के कारण यह शरीर में रहता हुआ अज्ञान और कषायकी कालिमासे अशुद्ध हो रहा है। यह जीव द्रव्य अवस्थामोंकी अपेक्षा तो मनित्य है परन्तु द्रव्य और गुणकी अपेक्षा नित्य है। यह स्वयं कर्म बांधता है व स्वयं उस बंधसे छूट भी सकता है। • अजीव तस्थ- में पांच द्रव्य गभित हैं। पुद्गल द्रव्य जो स्पर्श, रस, गंध, वर्णरूप है । जो परमाणु व स्कंधके भेदोंसे अनेक प्रकारसे 'लोकमर में भरा है। यह स्थूल शरीर भी पुद्गल से बना है तथा सूक्ष्म शरीर जो कर्मोंका है वह भी सूक्ष्म कर्मवर्गणारूपी पुद्गलोंसे मना है । जो कुछ हमारे इंद्रियोंका विषय है वह सब पुद्गल है । बहुतसे पुद्गल ऐसे सूक्षम हैं जिनको हम अपनो में से नहीं देख सकते हैं। . धर्मास्सिकाय वध्य-यह दूसरा अजोब द्रव्य है । यह अमूर्तीक तीन लोक व्यापी एक अखण्ड द्रव्य है। इसका काम जीव और पुद्गलों की हलनचलन क्रिया को होते हुए उदासीनता के साथ बिना प्रेरणाके मदद देना है। जैसे मछलीको चलते हुए जल सहकारी है। बिना इसके किसी जीव या पुद्गल में कोई हलन चलन रूप क्रिया नहीं हो सकती है। अधर्मास्तिकाय-यह तीसरा अजीव द्रव्य है । यह भी अमूक तीन लोक व्यापो एक अखण्ड द्रव्य है इसका काम जोव और पुद्गलों को स्वयं ठहरते हुए उनको उदासीनता के साथ बिना प्रेरणाके ठहरने में मदद देना है। बिना इसके जोव पुद्गल कभी ठहर नहीं सकते हैं । जैसे पथिकको वृक्षकी छाया ठहरने में निमित्त है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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