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तस्वभावना
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: आकाशद्रव्य-चौथा अजीव द्रव्य अमर्तीक आकाश है जो अनन्त है व एक अखण्ड है। इसका काम सर्व व्योंको अवकाश या स्थान देना है। इसीके मध्य में तोन लोकमय यह जगत है। जगतमें ही जीव पुदगल, धर्म, अधर्म, व काल ये पांच द्रव्य हय स्थान पर पाए जाते हैं। ये पांचों हो अजीव द्रव्य जीव द्रव्य से बिलकुल भिन्न स्वतंत्र द्रव्य हैं। जीव और पुद्गल का सम्बन्ध ही संसार है व इन दोनोंका भिन्न-२ होना ही मोक्ष है ।
कालद्रव्य-यह भी पांचवां अमूर्तीक अजीव द्रव्य है । इसका काम सर्व द्रव्यों रिनेमें उमासीनतः रोमारा है । इस काल के अणु अलग-अलग आकाशके एक-एक प्रदेश पर बैठे हुए असंख्यात प्रवेशी आकाशमें असंख्यात हैं। लोक में जितने द्रव्य एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थारूप होते हैं उनको नए से पुराना करने में ये कालाणु निमित्त हैं।
आस्रव और बन्ध तत्त्व-ये बतलाते हैं कि किस तरह यह जीव कर्मों को खींचकर बांधा करता है। मन, वचन, कायके द्वारा यह संसारी जीव काम किया करता है। जब यह कोई क्रिया मन, वचन, कायसे करता है तब आल्मा के प्रदेश सकम्प होते हैं उस समय चारों तरफ भरे हुए कार्माण, धर्गणारूप पुदगल खिचकर आ जाते हैं और आत्मा के कर्माण देह से बंध को प्राप्त हो जाते हैं। उनमें अनेकों आस्रव व बन्धन को बंध कहते हैं। रागद्वेष मोहकी यदि प्रबलता होती है तो कर्मों का बंधन बहुत काल तकके लिए होता है, यदि उनकी मंदता होती है तो बंधन थोड़े कालके लिए होता है। क्योंकि संसारी आस्माओं में