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________________ २७० ] तरवभावना व शरण रहित (अगाधे) बहुत गहरे (दुराराधे) दुःखों से भो जिसका तसा लिई (सारे संकरे, ऐरो इस सार रहित संसार में (अपरपदं) सिवाय मोक्षके दूसरा कोई पद (सुखदं न) सुख का देने वाला नहीं है। भावार्थ-यहां आचार्य ने बताया है कि यह संसार बिलकुल असार है । इसमें संसारी प्राणियों को थिरता प्राप्त नहीं होती, वे जन्मते मरते रहते हैं । उनको कोई मरणसे बचा नहीं सकता, इसका आदि अन्त नहीं है तथा यह इतना विशाल है कि इसका पार करना कठिन है । इसमें जितने भी पदार्थ हैं वे सब आत्माको सुखदायी नहीं है । पहले तो यह शरीर ही नाशवंत है आय कर्म के आधीन है, इसके छूट जाने का कोई समय नियत नहीं है । लक्ष्मी आदि बहुत ही चंचल हैं, स्त्रियों का संसर्ग मोह में फंसाने वाला है व आत्मध्यान में बाधक है। कुटुम्बोजन व पुत्रादि सव अपने-२ मतलबको देखते हैं। जब स्वार्थ नहीं सधता है तब वात भी नहीं करते हैं। स्वार्थ में विरोधी पिता को भी पुत्र मार डालते हैं । इस संसार में सर्व ही मित्र आदि मतलबके ही साथी हैं, जिस-२ चेतन व अचेतन पदार्थ का संग्रह किया जाता है कि इससे कुछ सुख मिलेगा उसीका वियोग हो जाता है । पराधीन सुख आकुलता का हो कारण है 1 इसलिए यही अनुभव करना चाहिए कि सच्चा सुख आत्मा में ही है । उसीको चाह करके सामायिक का अभ्यास करना योग्य है। श्री अमितगति स्वामी सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं--- इमा रूपस्थानस्वजनतनयत व्यवलिता, सुता लक्ष्मीकोतियुतिरतिमतिप्रोतिधृतयः ।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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