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बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं और जब ये मिल जाते हैं तब इनके भोगों से तृप्ति कभी नहीं होती है फिर ये इतना मोह बढ़ा देते हैं कि इनका छूटना कष्टप्रद हो जाता है । इसलिए बुद्धिमान मानव इन भोगोंकी इच्छा नहीं करता है । यदि गृहस्थ में पुण्योदयसे मिल जाते हैं तो उनमें आसक्त नहीं होता है। उनसे मोह करके अपने आत्मकार्य को नहीं मुलाता है ।
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तस्वभावना
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
लक्ष्मीकोर्तिकला समूह ललमा सौभाग्य आदिक सभी । 'छुट जाते इस जीव से इक दिन अब बेधकारी सभी । भवदधि ड्रअम हेतु मुक्तिपथ रिपु नहिं चाह धाऐं सुधी । जो हो तजने योग्य लाभ उसका करते नहीं जो सुधो ॥ ५१ ॥ उत्पानिका -- आगे कहते हैं कि बुद्धिमान लोग कभी भी अनर्थ कार्य नहीं करते हैं-
हेयाम विचारनास्ति न वतो न भेयसामाममो । न यं न कर्मपर्वत भिवा नाप्यात्मतत्वस्थितिः ॥ तत्कार्यं न वाचनापि सुधियः स्वार्थोद्यताः कुर्वते । शीलं जातु ननुत्सवो न शिखिनं विधापयंते बुधाः ॥१५२ ।। अन्वयार्थ -- ( यतः ) जिस कार्यके करने से (हेयादेय विचारणा न अस्ति ) ग्रहण करने योग्य व त्याग करने योग्य क्या है ऐसा विचार नहीं पैदा होवे ( न श्रेयसामागम : ) न मोक्ष आदि जो कल्याणकारक है उसका लाभ होवे ( न वैराग्यं ) न संसार देह भोगों से वैराग्य पैदा होवे (न कर्मपर्वतभिदा ) न कर्मरूनी पर्वतों का चूरा किया जासके ( नापि आत्मतत्व स्थितिः ) और न आत्मीक तत्व में स्थिति हो अर्थात् आत्मध्यान हो (तत्कार्यं ) उस कार्यको ( स्वार्थोद्यताः) अपने आत्मा के प्रयोजन में उद्यमो ( सुधियः ) बुद्धि