SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १४१ प्रयोजन कहने का यह है कि धनादि पदार्थों का मोह करना बया है, इनको संचय करना भी वृधा है क्योंकि एक तो ये कभी आत्माके साथ-२ जाते नहीं स्वयं छूट जाते हैं, दूसरे इनके मोह में आत्माका उद्धार नहीं होता है, आत्मा पवित्र नहीं हो सकता है। इसलिए ज्ञानी को इसमें राग हो न करना चाहिए। इसको उत्पन्न करने का भी मोह छोड़ देना चाहिए और आत्मकार्य में लगा देना चाहिए। जिस वस्तुको बड़े परिश्रम से कष्ट सह करके एकत्र किया जावे और उसे फिर छोड़ना ही पड़े उस वस्तु की प्राप्ति के लिए बुद्धिमान लोग कभी भी चाह नहीं करते हैं। इसलिए हमको धनादि की चाह को छोड़कर स्वहित ही कर्तव्य है । ऐसा हो भाव श्री पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश के भीतर. बताया है तत्स्वभावता त्यागाय श्रेयसे वितमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं सवंकेन स्नास्यामिति बिलंपति ।। १६ ।। आरंसे तापकान्प्राप्तवतुप्तिप्रतिपादकान् । अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधी || १७॥ भावार्थ -- कोई निर्धन मनुष्य यह विचार करता है कि धन कमाकर दान करूंगा इसलिए धन को इकट्टा करूं वह ऐसा ही I मूर्ख हैं जो यह विचारे कि मैं अपने शरीरको कीचड़से लिप्तकर फिर स्नान कर लूंगा इसलिए कीचड़ से लीपने लगे । जिस पाप को छुड़ाना ही पड़े उस पाप को लगाना ही अच्छा नहीं है । यदि धन कमाने से पाप संचय होता है तो जो मुक्ति चाहता है उसे इस जंजाल में नहीं पड़ना चाहिए। ये इंद्रियोंके भोग आरंभ में संताप करने वाले हैं। अर्थात् इनके प्राप्त करने के लिए
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy