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________________ तरबभावना [१४६ दो तमसुम आरमीक सुखको देनेवाले अपने आत्मा के स्वभाव को प्राप्त कर लेवे। - - - - . मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो इन्द्रिय बन गहन मध्य रमता घिरफाल लोलुपमहा । चूर्जन मन कपि थाभ आप वशकर फर ध्यान आतम महा ।। इच्छा सजकर मोग होय निस्पह भषजाल काटो महा । विन पुरुषार्य प्रधान काज कोई नहि सिद्ध होता महा ॥५४॥॥ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि योगी को एक आत्मतत्वका हो ध्यान करना चाहिए चंद्राग्रहतारकासमतयो यस्य व्यापायेऽखिलाः । जायते भुवनप्रकाशकुशला वांवप्रतानोपमाः ।। यविज्ञानमयप्रकाशविशवं यध्यायते योगिमिः। तत्तत्वं परिचितनीयममलं बेहस्थितं 'निश्चलं ॥५५॥ - अम्बयार्थ-(यस्थ) जिस तत्वके (व्यपाये) अभाव में भवनप्रकाशकुशलाः) लोक को प्रकाश करने में कुशल ऐसे (अखिलाः) सर्व (चंद्रार्कग्रंडतारकाप्रमतयः) चंद्रमा, सूर्य, ग्रह तारे आदिक (ध्यांतप्रतानोपमाः)अंधेरे के समूह के समान(जायते)हो जाते हैं (यतविज्ञानमयप्रकाशविशद)जो ज्ञानमई प्रकाशको बहुत निर्मल रखने वाला है व (यत् योगिभिः ध्यायते) जो योगियों के द्वारा याया जाता है (नत्) उस (अमल) निर्मल (निश्चलं) व निश्चल (तत्व) आत्मतत्व को (देहस्थित) अपने ही शरीर में विराजमान (परिचिंतनो घम् ) ध्याना चाहिए। . भावार्ष-यहाँ पर आचार्य ने आत्मा की तरफ ध्यान खिंचाया है। वह आत्मा जिसका ज्ञान हमको प्राप्त करना .
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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