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सस्वभावना
लाभ है । कर्मीका नाश बोतराम भाव से होता है क्योंकि उनका बन्धन रागद्वेषादि भावों से हुआ करता है। वीतराग भावों की प्राप्ति तब ही होती है जब आत्मा का ध्यान किया जाता है। आत्मा का ध्यान उसी समय होता है जब मनरूपी बन्दर को वैराग्यके खूटेसे बाँध दिया जावे । यह मन अनादिकाल से पांचों इन्द्रियों के भोगों की इच्छामें उलझा हुआ रहता है और महा चंचल तथा लोलुपी हो रहा है । इस मन को बारह भावना के चिन्तवन से इन्द्रियों की तरफ से हटाकर स्थिर किया जाता है सब ही ध्यान हो सकता है । इसलिए
कह रहे उचित है कि सम्याज्ञान व वैराग्य के द्वारा मनकी दशा को ठीक करे। पुरुषार्थ के बिना किसी भी कार्यको सिद्धी नहीं हो सकती है। लौकिक कार्य के लिए जैसा दीर्घदर्शीपने के साय विचार करके परिश्रम करने की जरूरत है ऐसे ही पारमाथिक कार्यों के लिए विचारपूर्वक परिश्रम करने की जरूरत है। मनके मारने से ही कार्य को सिद्धी हो सकती है। .
सुभाषिस रत्नसंदोह में स्वयं अमितगति महाराज कहते हैं-. मो शक्य यन्निषेधु त्रिभुवनभवनप्रांगणे वर्तमान : सर्वे नश्यन्ति दोषा भवमयजसका राधतो यस्य पुंसाम् ॥ जीवाजीवावितत्यप्रकट निपुणेः जनवाक्य निवेश्य । .. तस्वे चेतो विवध्याः स्वपशंखप्रदं स्वं तदा त्वं प्रयासि।४०६
भावार्थ-जो तीन लोक के बीच में मारा-मारा फिरता है उस मन का रोकना बड़ा कठिन है तथापि इसके रुक जाने से मनुष्यों के सर्व ही संसार में भयको देने बाले दोष नष्ट हो जाते' हैं। इसलिए तुम मन को जीव अजीव आदि तत्वोंके प्रगट करने में निपुण ऐसे जैन वचन में लगाकर तत्व के विचार में इसे जमा