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________________ ४८ ] तत्त्वभावना नेत्थं चितयतोपि में बस मतिविर्तते मोगतः। कंपन्छामि कमायामि कमहं मूकः प्रपद्ये विधिम् ।।१५।। अन्वयार्थ-(भोगाः) ये इन्द्रियों के भोग (निःसारा:) असार अर्थात् सार रहित तुच्छ जीर्ण तृण के समान हैं (भयदायिनः) भय' को पैदा करने वाले हैं (असुखकरा:) आकुलता भय कष्टको उत्पन्न करने वाले हैं व (सदा) सदा ही (नश्वरा:) नाश होने धाले हैं (निद्यस्थानभवार्तिजनकाः) दुर्गति में जन्म कराकर क्लेश को गंदा करने वाले हैं सपा जिलाजिना) विज्ञानों के द्वारा (निदिता:) निंदनीय हैं (इत्थं) इस तरह (चितयतः अपि) विचार करते हुए भी (मे) मेरी (मतिः) बुद्धि (बत) खेदकी बात है कि (भोगतः) भोगों से (न) नहीं (व्यावर्तते) हटती है तव (अहं) मैं (मूड़ा) बुद्धि रहित (क) किसको (पृच्छामि) पंछ (कम) किसका आश्रयामि) सहारा लूं (कम) कौन सी (विधिम् ) तदबीर (प्रपद्ये) करूं ! भावार्थ-इस श्लोक में एक श्रद्धावान जैनी अपनी भूलको विचारते हुए अपने कषायों के जोर को कम कर रहा है। इस जोव के साथ मोह कर्म का बन्ध है। मोह ही उदय में आकर जोवको बावला बना देता है और यह उन्मत्त हो न करने वाग्य कार्य कर लेता है। मोहकर्मके मूल दो भेद हैं—एक दर्शनमोह, दूसरा चारित्रमोह, दर्शनमोहके उदयसे आत्माको अपने आपका सच्चा विश्वास नहीं होपाता है। चरित्रमोहका उदय आत्मा में ठहरने नहीं देता है-अपने आत्माके सिवाय अन्य चेतन व अचेतन पदार्थों में राग द्वेष करा देता है। इसके चार भेद है-अनन्तानुबन्धी कषाय, जो बाजान के बिगाड़ने में दर्शनमोह के साथी हैं।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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