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________________ तत्वभावना [४६ अप्रत्यास्यानाकरण कषाय-जिसके उदय होने पर श्रद्धान होने पर भी एक देश भी त्याग नहीं किया जाता अर्थात् श्रावक के व्रत नहीं लिए जाते । प्रत्याख्यानावरण कषाय-जिसके उदय से पूर्ण त्याग कर साधु का माचरण नहीं पाला जाता है। संज्वलन कषाय-जो आत्मध्यान को नाश नहीं कर सकते परन्तु जो मल पैदा करते हैं, जो पूर्ण वीतरागता को नहीं होने देते। जिस किसी महान पुरुष के अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शन मोह के दबने से सम्यग्दर्शन हो गया है वह पुरुष यह अच्छी तरह समझ गया है कि विषयभोगों से कभी भी इस जीव को तृप्ति नहीं होनी है ! उल्टी ताणा की आग बढ़ती हुई चली जाती है, इसीलिए ये भोग असार है, फल कुछ निकलता नहीं, तथा भोगों के चले जाने का व अपने मरण होने का भय सदा बना रहता है । यह भोगो जीव चाहता है कि भोग्य पदार्थ कभी नष्ट न हों व मैं कहीं मर न जाऊँ। तथा इन भोगों की प्राप्ति के लिए व उनकी रक्षा के लिए बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है और यदि कोई भोग नहीं रहता है तो यह प्राणी आकुलता में पड़कर दुःखी हुआ करता है। ये भोग अवश्य नष्ट होने वाले हैं। या तो आप ही मर जायगा या ये भोग्य पदार्थ हमारा साथ छोड़ देंगे तथा इनके भोगने में बहुत तीव्र राग करना पड़ता है जिससे दुर्गति हो जाती है तथा इसीलिए इन भोगों को विद्वानों ने निन्दा योग्य बुरा समझा है। श्री शुभचन्द्राचार्य ने भी ज्ञानार्णव में कहा है अतप्तिजनकं मोहवाषचन्हेमले धनम् । असातसन्ततेोजमक्षसौख्यं अजिमाः 11१३|
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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