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आत्मध्यान का उपाय
धरणज्ञानसम्पन्ना जिताशा बोतमत्सराः । प्रागने कास्ववस्थासु संप्राप्ता यमिनः शिवम् || भावार्थ - ध्यान के समय ध्याता को प्रसन्नमुख रखकर पूर्व या उत्तरको मुख करना चाहिए, यह प्रशंशनीय है तथापि ज्ञान और चारित्रके धारी, जितेन्द्रिय, मानादि रहित ऐसे साधु पूर्वकाल में अनेक अवस्थाओं से मोक्ष गए हैं, उनके दिशा का नियम नहीं था। पहले हाथ लटकाए हुए नौ दफे णमोकार मंत्र अपने मनमें पढ़े, फिर मस्तक भूमिमें लगाकर नमस्कार करे । तब मन में यह प्रतिज्ञा करले कि जबतक इस आसनसे नहीं हटूंगा तबतक या इतने समय तक सर्वं अन्य परिग्रहका त्याग है, जो कुछ मेरे पास है उसके सिवाय तथा चारों तरफ एक- २ गज भूमिको रखकर सब भूमिको भी त्यागता हूँ। फिर कायोत्सर्ग बड़ा होकर तीन दफे या तो दफे णमोकार मंत्र पढ़कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करे। दोनों हाथ जोड़कर अपने बाएंसे दाहनी तरफ तीन दफे धुमावे | फिर उन जोड़े हुए हाथों पर अपना मस्तक झुकावे । इसका प्रयोजन यह है कि इस तरफ जितने बंदनीय तीर्थं व धर्मस्थान व अरहन्त व साधु आदि हैं उनको मन, वचन, काय तीनों से नमस्कार करता हूँ। फिर अपने दाने खड़ा खड़ा हाथ लटकाए हुए मुड़ जावे । इधर भी नो या तीन दफे णमोकार मंत्र पढ़कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करें, फिर पीछे, फिर चौथी तरफ, इसी तरह करे । पश्चात् जिधर पहले मुख करके खड़ा हुआ था उधर ही आकर बैठ जावे | पद्मासन, पल्यंकासन जमाले या कायोत्सर्ग ही रहे। सबसे पहले सामायिक पाठ मनमें अर्थ विचार करता हुआ