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________________ तत्त्वभावना कीड़ा भी परोंके नीचे न आजावे । फिर भी साधन अवस्था में किसी समय सावधानी न रहने से कोई जतु कदाचित् पेरके नीचे दबकर मर जाय, या उलट पलट हो जावे, अथवा शरीर, जमीन, कमंडल आदिको मुलायम पोंछोसे पोंछते हुए कोई जंतु जो मिले थे अलग-२ कर दिये जावें, व कई जो अलग थे वे मिला दिये जायें इत्यादि कारणोंसे प्रमाद हेतु होने से हिंसा सम्बन्धी पापका बंध संभव है। उस पापके बंधको छुड़ाने के लिए मुनिगण इस तरह विचारकर भावना भाते हैं । इस भावना से, पाप कर्म जो बंधचुका है उसकी स्थिति में व उसके अनुभाग में कमी हो जाती है । श्रावकोंमें आरंभ त्यागी आठवीं प्रतिमासे उद्दिष्ट त्यागी ग्यारवी श्रेणी तकके श्रावक हिंसासे वचने में बहुत ही सावधान होते हैं। वे स्वयं हिंसाकारक आरम्भ नहीं करते हैं, न कराते हैं। इसलिए ये शवक भी मुनि के समान किसी सवारी पर नहीं चढ़ते हैं-मार्गको देखकर चलते हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा वाले ऐलक मुनि समान व्यवहार करते हैं; इसलिए रात्रि को न चलते हैं न वोलते हैं। उससे पहले के श्रावक अति आवश्यकता हो तो धर्मकार्यवश प्रकाश में मार्गको देखते हुए चलते हैं । आठवींसे नीचेके श्रावक आरम्भ त्यागी नहीं होते हैं। उनसे हिंसा अधिक हो जाती है। वे आरम्भी हिंसा से बच नहीं सकते तथापि यथासम्भव आरम्भ व्यर्थ व अनावश्यक नहीं करते । आवश्यक आरम्भ करते हुए भी जीबदधा भावों में रखते हैं। यथासम्भव जीवघात बचाते हैं। युद्ध में सामना करने वालेको हो प्रहार करते हैं। भागते हुएको, शरण में आए हुएको, धायलको, स्त्रीको, बालकको नहीं सताते हैं। खेती में भी जान बूझकर किसीको नहीं मारते हैं । व्यापारमें भी पशुओं पर अधिक भार लादकर कष्ट नहीं देते हैं। सवारी पर चलते हुए अधिकतर रौंदे हुए
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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