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________________ तस्वभावना [ २५७ सेवन करता है ( मन्ये) में ऐसा मानता हूँ कि ( स ) वह (जन्मजरांतकक्षयकरं) जन्म जरा मरण को क्षय करने वाले (पीयूषं ) अमृतको (अत्पस्य ) छोड़कर (सद्यः) शीघ्र ही (प्राणी विपर्यादिजनक) प्राणों के घात करने वाले ( हालाहलं ) हालाहल विषको ( बल्भते) पीता है । भावार्थ - यहां आचार्य ने बताया है कि सच्चा सुख आत्मा में ही है और वह अपने आत्मा के सच्चे स्वरूपके श्रद्धान, ज्ञान य चारित्रसे अर्थात् स्वात्मानुभव से अनुभव में आता है। इसी निश्चय रत्नत्रयके द्वारा मोक्षण में शा होता है। इस सुखके सामने इंद्रिय भोगों का सुख ऐसा हो है जैसे अमृत के सामने विष । जैसे अमृतके खाने से क्लेश मिटता व पुष्टि आती है वैसे आत्मीक सुखके भोगसे जन्म, जरा, मरण के रोग मिट जाते हैं और यह जीव अविनाशी अवस्था में बना रहता है । जैसे विष हालाहल के पीने से महाकष्ट होता है तथा प्राणोंका वियोग हो जाता है वैसे विषयभोगों के करनेसे पापकर्म का बन्ध होता है जिसके उदयसे नाना प्रकारके दुःख भविष्य में प्राप्त होते हैं इसलिए यह शिक्षा दी जाती है कि इंद्रियविषयभोगों की लालसा छोड़कर एक आत्मीक सुखके लिए आत्मानुभव करना जरूरी है । आत्मीक सुखके भोगमें वीतरागता रहती है जिनसे कर्मों की निर्जरा होती है जबकि इंद्रियभोगों में अवश्य तीव्र रागभाव करता पड़ता है जिससे पापकर्मीका बन्ध हो जाता है । वर्तमान में इंद्रिय सुख जब तृष्णाको बढ़ाने वाला है तब आत्मीक सुख परम सन्तोष को व सुख शांति को देने वाला है । आत्मीक सुख स्वाधीन है जब कि इंद्रिय सुख पराधीन है। सम्याष्टी को
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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