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________________ तत्वभावना रूपी पानी से पूर्ण घड़े के समान तथा नाना प्रकार मलसे भरे हुए इस देह में अपनेपने की बुद्धि करके हे आत्मान् ! तनाशको प्राप्त होगा, ऐसा विचार करके इस शरीर से ममता टाल दे और धर्म के कार्यों को कर 1 मूल श्लोषानुसार छन्द मालती कर्म विधाता ने पशुओं को घासपात भोगी थलशायी। देव और भू भोग नरों को चिता करसे भोग कराई। मत्यलोकके मानव पापी, वृत्ति जिन्होंने बुखप्रद पाई। धर्म कोति अर सुख विघटावे, यह काहे विपरीत रचाई ॥२७॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि.अज्ञानी जो वको शांतसुख ... की इच्छा नहीं होता। मालिनीवृत्त भासि विविजयोषा यासि पातालमंग। भ्रमसि धरणिपृष्ठं लिप्स्यसे स्वान्तलक्ष्मीम् । अभिलषसि विशुद्ध व्यापिनों कोसिकान्तां । प्रशममुखसुखाधिमाहसे स्वं न जातु ॥२१॥ अन्वयार्थ- अग) हे मन! तू कभी तो (दिविजयोषा) देवोंकी स्त्रियों को(भजसि) भोगना चाहता है (पातालं यासि) कभी तू पाताल में चला जाता है (धरणिपृष्ठं भ्रमसि) कभी पृथ्वी के ऊपर घूमता है (स्वान्तलक्ष्मीम्) कभी मनके अनुकूल धनको (लिप्स्यसे) प्राप्त करना चाहता है, कभी (विशुद्धां) अति उज्ज्वल (व्यापिनी) जगतमें फैलनेवाली (कोतिकांता) कीतिरूपी स्त्रोको अभिलसि) चाहता है परन्तु (लं) तू (जातु) कभी भी (प्रशममुखसुखाब्धि) शांतिमय सुख समुद्र में (न गाहसे) नहाना नहीं चाहता है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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