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________________ तस्वभावना [७३. हूँ व अमुक देश, जिले में जाकर धर्म का प्रचार कर सकता हूँ अथवा मैं गृहस्थ में रहकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थों को साध सकता हूं। और धन से मुका-२ परोपकार कर सकता हूँ। (५) परलोक में मेरा हित क्या है ? उ.-मैं यदि परलोक में साताकारी सम्बन्ध पाऊँ, जहाँ मैं सम्यग्दर्शन सहित तत्वविचार कर सकू, तीर्थकर केवली का दर्शन कर सक, उनकी दिव्यध्वनि को सुन सकू, मुनिराजों के दर्शन करके सत्संगति से लाभ उठा सक, ढाईद्वीप के व तेरहद्वीप के अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन कर सकें, तो बहुत उत्तम है जिससे मैं परम्परा से मोक्ष धाम का स्वामी हो सकें । (६) मेरा अपना क्या है ? उ०—मेरा अपना, मेरा आत्मा है; सिवाय अपने आत्मा के कोई अपना नहीं है। आत्मा में जो ज्ञानदर्शन, सुख, वीर्यादि गुण हैं वे ही मेरी सम्पति है । मेरा द्रव्य अखण्ड गुणों का समूह मेरा आत्मा है। मेरा क्षेत्र असंख्यात प्रदेशी मेरा आत्मा है। मेरा काल मेरे ही गुणों का समय-२ शुद्ध परिणमन है। मेस भाव मेस शुद्ध ज्ञानानंदमय स्वभाव है। सिवाय इसके कोई अपना नहीं है। ७) मेरे से अन्य क्या है ? उ०—मेरे स्वभाव से व मेरी सत्ता से भिन्न सर्व ही अन्य आत्माएं हैं, सर्व ही अण व स्व रूप पुदगल दृश्य हैं 1 धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाश तथा काल द्रव्य हैं, मेरी सत्ता में जो मोह के निमित्त से रागादि भाव होते हैं ये भी मेरे नहीं हैं न किसी प्रकार का कर्म व नोकर्म का संयोग मेरा अपना है, वे सब पर हैं।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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