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________________ तस्वमानना '[.१६E भावार्ष-यों पांचों इंद्रियों के सुख भोगते समय तो सुन्दर भासते हैं परन्तु ये अतप्तिके ही बढ़ाने वाले हैं 1 जैसे इन्द्रायण का फल खाते समय मीठा होता है परन्तु उसका फल प्राणों का हरने वाला है। ये इन्द्रियसुख नित्य नहीं रहते तथा अनेक दोषोंको पैदा करने वाले हैं ऐसा जानकर बुद्धिमान लोग इन इन्द्रियों के सखोंकी इच्छाको ही छोड़ देते हैं। मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो नित दुस्सह दुःख लोकद्रय पोषण किये वेत हैं। निर्दय हैं वर्धार अरि विषय ये मनद्धि कर देस हैं। शिव सुख इच्छुक किस तरह से सहे सलिनुराम हे सुखसों बुधजन न कार्य करते जो कष्ट देते नये ॥७६॥ उत्यामिका--मागे कहते है कि निर्मल भावों का और मलीन भावों का पया क्या फल होता हैकुर्वाणः परिणाममेति विमलं स्वर्गापवर्गभियं । प्राणी कश्मलमप्रवुःखजमिका श्वधाविरोति यतः ।। गलानाः परिणाममाधमपरं मुंचंति सन्तस्ततः। कुवेन्सीह कुतः फवाधिवाहित हित्वा हितं धोधमाः ।।७७।। अन्वयार्य-(यतः) क्योंकि (प्राणी)यह प्राणो (विमलं परिणाम) निर्मल भावको (कुर्वाणः) करता हुआ (स्वर्गापवर्गश्रियं) स्वर्ग व मोक्ष की लक्ष्मी को (एति) प्राप्त कर लेता है तथा (कमल) मलीन भावको करता हुआ (उग्रदुःखजनिकी) भयानक दुखोंको पैदा करने वाली (श्वभ्रादिरीति) नकं आदि की अवस्था को पाता है (सतः) इसलिए (सन्तः) सन्तजन (आय) पहले (परिणामं) भावको (मल्लाना:) ग्रहण करते हुए (अपर) दूसरे अशुभ भावों को (मुंबति) स्याग देते हैं (ह) इस लोक
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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