SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AR तत्स्वभावना। [८३ मोकानुसार राद । विरकाल कुसङ्कति बिनकी ओष शरीर प्रसिद्ध जगतमें । साथ रहें नित विरह न हावै तदपि छुरत है दोउ जगतमें । तो फिर पुत्र धनादि बाह्य ये छुटत होत किम खेद जगतमें। बुद्धिमान इम जान सदा ही शोक की नहिं कोय जगतमें ॥२६॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पेट की चिंता बड़ी दुःखलाई है यह चिन्ता धर्म, यश, सुखका नाश करती है तियचस्तृणपर्णलब्धधृतयः सृष्टाः स्थलीशायिनः । चितानन्तरलब्धभोगविभवा देवाः समं भोगिभिः || __ मत्यांना विधिना विरुद्धमनसा वृत्तिः कृता सा पुनः। कष्टं धर्मयशामुखानि सहसा या मूदते चिंतिता ॥२७॥ । अन्वयार्थ-( विरुहमनसा ) विपरीत मनवाले (विधिना) कमरूपी ब्रह्माने (तियंच:) पशुओंको (तृणपर्णलब्धधृतयः ) तिनके और पत्तोंको खाकर संतोष रखनेवाले व (स्थलीशायिनः) नमीनपर शयन करनेवाले तथा (मोगिभिः सह) भोगभूमियों के साथर (देवाः) बोको ( चिंतानन्तरलब्धमोगविभवाः ) चिंता करते ही भोगोंको भोगनेवाले व ऐश्वर्यवान ( सृष्टाः ) रचे ( पुनः) फिर ( मानां) कर्मभूमिके मनुष्योंकी (सा वृत्तिः) ऐसी आजीविकाकी पद्धति (कना) करदी (या चिंतिता) किनिसकी चिंता (सहसा) शोध ही (धर्मपिनःसुखानि ) धर्म, यश तथा सुखोंको ( मृदते ) नाश कर देती है। (कष्टं) यह बड़े दुःखकी बात है। भावार्थ-महापर आचार्यने दिखलाया है कि हम मनुष्योंको अपने पेट पालने के लिये भी बहुत कष्ट सहना पड़ता है। पशुओंके तो ऐसा कमका उदय है मिससे अधिकांश पशु स्वयं पैदा
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy