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________________ तत्त्वभावना --..-..- -. पशुओंके तो ऐसा कर्मका उदय है जिससे अधिकांश पशु स्वयं पंदा होने वाले घास पत्तों को खाकर रह जाते हैं व जमीनपर सो जाते हैं । देवोंके ऐसा पुण्य का उदय है कि भूख उनको इतनी कम लगती है कि यदि एक सागर वर्षों की आयु हो तो १००० वर्ष पीछे भूख की वेदना होती है । भूख की चिता होते ही उनके इस जाति के परमाणु कण्ठ में होते हैं जिनसे अमृतसा भीतर झड़ जाता है और देवोंको भूख मिट जाती है । इसीसे उनके मानसिक आहार है ! वे कभी ग्रास ले करके कोई भी अन्न या अन्य पदार्थ नहीं खाते । भोगभूमिके मानवोंके यहां भोजनांग वस्त्रांग भाजनांग आदि दस जातिके पृथ्वी कायधारी कल्पवृक्ष होते हैं। उनसे चिता करतेही इच्छित पदार्थ मिल जाते हैं। उनके भोजन बहुत अल्प होता है । दीर्घकायी होने पर भी आंवला प्रमाण अमृतमयी भोजन करके तृप्त हो जाते हैं । परन्तु मानव समाज को कर्मभूमिमें जन्म लेकर असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, सिल्प, विद्या इन छ: प्रकारके साधनोंको करके पहले तो धन कमाना पड़ता है फिर पांचों इन्द्रियोंके भोगोंके लिए सामग्री इकट्ठी करनी पड़ती है। इन कार्यों में अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मानव ऐसे फंस जाते हैं कि नीति व अनोतिको भूल जाते हैं, हिंसा, असत्य चोरी आदि पापोंसे धन इकट्ठा करते हैं, बड़े कष्ट से निर्वाह करते हैं, खानपान में संतोष न रखकर अभक्ष्य व कामोद्दीपक व मादक पदार्थ खाने लगते हैं । मनकी चंचलता बढ़ जाने से वेश्यासक्त व परस्त्री गामी हो जाते हैं तथा इन्द्रियों के भोगोंमें व धनके संचयमें ऐसे लवलीन हो जाते हैं कि उनको धर्म की परवाह नहीं रहती है, वे धर्मसाधन को मानो नाश हो कर डालते हैं । अन्याय व अनुचित व्यवहार से जब दूसरे मानवोंको
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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