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________________ तत्त्वभावना [ १८१ दुःखट्यालप्तमाकुले भवबने हिंसादिदोषमे । नित्यं दुर्गतिपल्लिपातिकुपये भ्राम्यति सर्वेगिनः॥ मध्ये सगरमाणितपाये गारधयानो जनो। यात्यानंवकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं पुरं ॥१०॥ भावार्थ-इन दुःखोंरूपी हाथियोंसे भरे हुए व हिंसादि पापों के पक्षों को रखने वाले तथा खोटी गतिरूपी भीलों को पल्लियों के खोटे मार्ग में नित्य पटकने वाले संसार वन में सर्व ही प्राणी भटका करते हैं। इस वन के बीच में जो चतुर पुरुष सुगुरु के दिखाए हुए मार्ग में चलना शुरू कर देता है वह परमानन्दमई उत्कृष्ट व स्थिर एक निर्वाणरूपी नगर में पहुंच जाता है। __ मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द सूर्य किरण ठंडी उष्ण हो चन्द्र बिम्छ। यदि सुरगिरि थिर भी हो या अथिर और कम्धं ॥ पर कभी न पावे आत्म सुख मढ़ जीवा। दुःखमय भवयन में जो भटकता अतोवा ॥६८।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा का स्वभाव शुद्ध है इसका सम्बन्ध संसार वासनाओं से नहीं है। शार्दूलविक्रीडितं कार्यः कर्मबिनिमितबहुविधः स्थूलाणुदो विभिः। नात्मा याति कदाचनापि विकृति संबध्यमानः स्फुटं । रक्तारक्तसितासितादिवसनरावेष्टयमानोsiप कि। रक्तारक्तसितासितागुणितामापद्यते विग्रहः ।।६।।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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