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तरवभावमा
[ २११ भिर्वर्षिताम् ) सर्व आपत्तियों से रहित (नित्यनिरंतरोषतसुखां) व सदा ही बिना अन्तर के उच्च सुख को देने वाली (मुक्ति) मुक्ति को (कोपि कोई भी (कासमोहिताति: Aषाय से बद्धिको मढ़ बनाने वाला (प्राणी) मानव (तत्वतो) तत्वदृष्टि से या वास्तव में (नो बुध्यते) नहीं समझता है। आचार्य कहते हैं फिर वह (अनुत्तमाममुक्ति मुक्ता) ऐसी मुक्ति को जिसके समान जगत में कोई उत्तम पदार्थ नहीं है त्याग कर (अपरथा) उससे विरुद्ध (संस्मृती) संसार में (किं) क्यों (रज्यते) राग करता है।
भावार्थ यहां पर आचार्य ने बताया है कि जिसकी बुद्धि बिगड़ जाती है वह हितकारी पदार्थ को छोड़कर बाघाकारी पदार्थ को लेता फिरता है। यदि किसी मूर्ख को एक हाथ से अमृत व एक हाथ से सूखी रोटी दी जावे तो अमृतको छोड़कर उस रोटी को ही ले लेता है क्योंकि उसको यह विश्वास नहीं है कि अमत में क्या गुण है। इसी तरह अज्ञानी प्राणी को यदि श्री गुरु एक तरफ तो मोक्ष का स्वरूप बतावें, दूसरी तरफ संसार का स्वरूप बतावे और यह समझायें कि संसार जब जन्म, मरण, शोक, भय, रोग, वियोगादि उपद्रवों से रात-दिन भरा है तब मोक्ष इन सर्व आपत्तियों से बिलकुल दूर है । संसार जब मलीन व आकुलतामय है तब मोक्ष पूर्ण निराकुल व नित्य परमोत्तम सुख को देने वाला है तब भी वह मूर्ख अपनी अनादि कालीन आदत के अनुसार अनंतानुबंधी कषाय से अन्धा होता हुमा संसार ही में राग करता है। मोक्ष की तरफ बिलकुल भी अपनी रुचि नहीं पैदा करता है। यही कारण है जो अनेक जीव धर्मोपदेश को सुनते हुए भी नहीं भीजते हैं । रातदिन दूसरे प्राणियों का मरण देखते हुए भी अपने कल्याण का उपाय